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________________ ज्यों था त्यों ठहराया तो जरा सावधान रहना। विवाह की झंझट में मत पड़ना। तेरे मां-बाप तो कोशिश करेंगे। क्योंकि वे बेचारे क्या करें! वे तो एक ही जीवन का ढंग जानते हैं--जिस ढंग से वे जीए। हालांकि उन्होंने भी जीवन में उस ढंग से जी कर कुछ पाया नहीं। जब मैं विश्वविद्यालय से घर लौटा, तो स्वभावतः मेरे मां-बाप भी उत्सुक थे कि मेरा विवाह हो जाए। मैंने सिर्फ इतना ही पूछा कि मुझे तुम सोच-समझ कर कहो कि तुमने कुछ पाया? तुम्हें कुछ मिला हो--ईमानदारी से मुझे कह दो। फिर वे कुछ बोले ही नहीं। क्योंकि अब ईमानदारी से क्या कहते! ईमानदारी तो यही थी कि विवाह से क्या मिलना-जुलना है! किसको कब मिला है? मेरे पिता के एक मित्र थे वकील, फिर उन्होंने मुझसे सीधी बात करनी बंद कर दी। सोचा कि वकील है आदमी यह, यह समझा सकेगा। वकील को मेरे पास भेजा। और वकील ने कहा, अरे, बड़े-बड़े मुकदमे जीत चुका। यह कोई मुकदमा है! इस छोकरे को मैं ठीक करूंगा। वे वकील मुझे समझाने आए। मैंने उनकी बात सुनी। मैंने कहा, बात तो मैं करने को राजी हूं। लेकिन एक बात पक्की कर लें--न्यायाधीश भी चुन लें। उन्होंने कहा, मतलब! मैंने कहा कि गांव में इतने मजिस्ट्रेट हैं। आपके भी पहचान के हैं, मेरी भी पहचान के हैं। एक मजिस्ट्रेट को अपन बिठा लें। आप दलीलें दें विवाह के पक्ष में। मैं दलीलें दूंगा विपक्ष में। अगर आप जीत गए, तो मैं विवाह करूंगा। अगर मैं जीत गया, फिर--आपको विवाह छोड़ना पड़ेगा! उन्होंने कहा, तू तो बड़ा उपद्रवी है! हमारी बसी-बसाई उजड़वा देगा! मैंने कहा, एकत्तरफा कैसे सौदा हो सकता है कि तुम मुझे समझाओ और मैं विवाह करूं। इसका दूसरा पहलू भी तो समझो! मैंने कहा, मैं तुम्हारा एक-एक तर्क काटने को तैयार हूं। क्योंकि मैं तुम्हारी जिंदगी को बचपन से जानता हूं। तुम्हारी पत्नी को जानता हूं। तुमको जानता हूं। तुम्हारे घर में क्या चलता है--वह जानता हूं। एक-एक पोल खोल कर रख दूंगा। वे जो वहां से भागे, तो लौटे ही नहीं! दो-चार दिन बाद मैं उनके घर जाने लगा--कि वकील साहब कहां हैं! वे कहीं स्नान-गृह में छिप जाएं। कभी उनकी पत्नी कहे कि बाहर गए हैं। दफ्तर गए हैं। फलाना-ढिकाना! एक दिन उनकी पत्नी बोली, क्यों मेरे पति के पीछे पड़े हो? वे तुम्हें देख कर छिपते क्यों हैं? बात क्या है, आखिर मैं भी तो समझू! मैंने कहा, बात यह है कि यह विवाद होना है। और यह तय होना है कि कौन जीतता है। अगर मैं जीता, तो तुम्हारा खात्मा समझो। अगर वे जीते, तो मेरा खात्मा। मगर अब फैसला होकर रहेगा। मुझसे उलझे हैं, तो मैं ऐसे ही नहीं छोड़ दूंगा। दफ्तर गए। स्नानगृह में गए। मैं बैठा हूं। और आज यहीं बैठा रहूंगा। कभी तो लौटेंगे दफ्तर से! Page 114 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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