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________________ ज्यों था त्यों ठहराया मेरे पास बैठ कर इतना ही समझ में आ जाए, तो गुम हो जाना कोई कठिन मामला ही नहीं है। हम गुम हैं। लेकिन पिंकी पहले पकड़ में आई। कल मैंने कहा था न कि बूढे व्यक्ति थोड़ी देर लगाते हैं; थोड़ा सोचते हैं, विचारते हैं। स्वभावतः। बिलकुल नैसर्गिक है। जीवन भर का अनुभव बीच में दीवाल बन कर खड़ा होता और संत महाराज ने पिंकी के लिए प्रार्थना ही नहीं की थी। पिंकी की इन्होंने गिनती ही नहीं की थी। मां-बाप की ही बात कही थी। वे भूल ही गए पिंकी की गिनती करना। सोचा होगा: इसकी क्या गिनती करना! अभी सतरह-अठारह साल की है! गिनती के बाहर ही रखा! संत ने सोचा होगा, बच्ची है। लेकिन बच्चों के पास ज्यादा दृष्टि होती है। ज्यादा साफ, निर्मल दृष्टि होती है। बच्चे जल्दी मेरी बात समझ पाते हैं। उन्हें बिलकुल ठीक-ठीक दिखाई पड़ जाता है। बूढों की आंख पर बहत जाले छा गए होते हैं। जिंदगी बहुत धूल जमा गई होती है उनके दर्पण पर। इसलिए थोड़ी देर लगती है। मगर शुरुआत हो गई संत महाराज! पिंकी डूबेगी। और शक्ति की फिक्र मत कर। शक्ति का कोई सवाल नहीं--सिर्फ समझ का सवाल है। शक्ति तो सब में छिपी है; सबके भीतर है। न देने की जरूरत है, न मांगने की जरूरत है। परमात्मा सबको बराबर शक्ति दे कर भेजता है। अंतर्यात्रा की शक्ति तो सबके भीतर समान है। सिर्फ अंतर्यात्रा शुरू करने की बात है। तेरे मन में भाव उठा--बात शुरू हो गई। अड़चनें आएंगी। बाधाएं आएंगी। लेकिन अगर भाव सघन है, तो सारी अड़चनों से और भी सघन हो जाता है। हर अड़चन चुनौती बन जाती है। मां-बाप तुझे रोकेंगे कि पागल, एक तो बेटा पागल हो गया। अब बेटी भी पागल होने लगी! उन्होंने तो मुझे लिखा है कि आप संत को आदेश करें कि कम से कम साल में चार बार मिलने हमसे घर पर आना चाहिए! अब उनको मालूम नहीं कि मैं आदेश तो किसी को करता ही नहीं। संत को बिलकुल स्वतंत्रता है। वे जब चाहें, तब जा सकते हैं। सच तो यह है कि मुझे बाहर जाना हो, तो संत से पूछना पड़ता है कि भई, निकलने दोगे दरवाजे से कि नहीं? छह साल में सिर्फ तीन बार निकलने दिया है। अगर वह कह दें कि नहीं, दरवाजा ही नहीं खोलते, तो बात खतम! मैं हूं बिलकुल अलाल; में उतर कर दरवाजा भी नहीं खोल सकता। वह तो बड़ा दरवाजा है, मैं कार का दरवाजा भी नहीं खोलता! न लगाता न खोलता-दरवाजा वगैरह की बात ही नहीं। संत खोल दें तो ठीक, नहीं तो बात खतम! छह साल में सिर्फ तीन बार खोला उन्होंने! और आदेश तो मैं किसी को देता नहीं। मैं नहीं कह सकता कि जाओ। और जाना चाहें, तो मैं नहीं कह सकता कि मत जाओ। यहां तो प्रत्येक संन्यासी स्वतंत्र है। जब तक उसकी मौज--रहे; जब मौज हो, जाए; जब मौज हो तो वापस आ जाए। न कोई रोकने वाला है, न कोई भेजने वाला है। Page 112 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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