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________________ अतिमात्रा में खाने वाले की इन्द्रियाग्नि- कामाग्नि शांत नहीं होती। सूत्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार अग्नि के सम्पर्क से पदार्थ संतप्त होकर जल जाते हैं उसी प्रकार जो वासनाओं से मुक्त नहीं होता वह अतृप्ति की अग्नि से संतप्त हो जाता है और प्रमत्त होकर जरा और मृत्यु को 138 139 140 प्राप्त होता है सूत्रकार कहते हैं कि मूढ लोग यह समझ नहीं पाते कि यह समूचा संसार अग्नि से जल रहा है। " ज्ञानार्णव में काम को अग्नि की उपमा देते हुए कहा गया है कि व्यक्ति इससे संतप्त होकर स्त्री के शरीर रूप अथाह कीचड़ का आश्रय लेते हुए उसके भीतर डूब जाता है। 100 यहां कामाग्नि को घी से सिंचित अग्नि से भी अधिक भयानक बताया गया है। इसका कारण यह बताते हैं कि अग्नि से जला हुआ प्राणी तो उस भव में कष्ट पाता है तथा कदाचित उचित आदि के उपचार से वह उस भव में भी उसके कष्ट से मुक्त हो जाता है। परंतु अब्रह्मचर्य के पाप के कारण प्राणी अनेक भवों में दुर्गति के कष्ट पाता है तथा उसका कोई प्रतिकार भी संभव नहीं है। 'अग्नि का महत्त्व तभी तक है जब तक वह प्रज्ज्वलित रहे। वह ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हुए पुरुष को 'बुझी हुई अम्नि' से उपमित करते हुए उसके शीघ्र ही अपमानित होने की बात कही गई है। धर्मामृत अनगार में स्त्री को अग्नि के तुल्य माना है। जैसे अग्नि के सम्पर्क से तत्काल घी पिघलता है और पारा उड़ जाता है वैसे ही स्त्री के सम्पर्क से मनुष्य का मनोगुणसत्त्व वीर्य छल से विलीन हो जाता है और युक्त-अयुक्त का विचार ज्ञान नष्ट हो जाता है।' 4.26. मृग - सूत्रकृतांग सूत्र में काम वासना में फंस चुके व्यक्ति की उपमा मृग से की गई है। जिस प्रकार घास के मोह में फंसा मृग परवश हो जाता है। वैसे ही काम वासनाओं के पाश में फंसा मनुष्य चाहकर भी बंधन से छूट नहीं सकता है। 141 142 143 उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार जिस प्रकार शब्दों की आसक्ति के कारण हरिण अपने प्राण खो देता है। उसी प्रकार जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में ही विनष्ट हो जाता है। 144 137 145 146 4.27. मत्स्य - सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार ब्रह्मचर्य में पराजित मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे जाल में फँसी मछलियां । 'उत्तराध्ययन सूत्र में मत्स्य की उपमा रसासक्ति के रूप में की गई है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच में मत्स्य कांटे में बींधा जाता है, उसी प्रकार जो मनोज्ञ रसों में तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में विनष्ट हो जाता है। 4.28. भैंसा - उत्तराध्ययन सूत्र में स्पर्श इंद्रिय की आसक्ति में फंसे व्यक्ति की उपमा भैंसे से की गई है। जिस प्रकार जल के शीतल स्पर्श में आसक्त भैंसा घड़ियाल के द्वारा पकड़ा जाता है। उसी प्रकार जो मनोज्ञ स्पर्श में तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में विनष्ट हो जाता है।' 4. 29. हाथी - उत्तराध्ययन सूत्र में कामासक्त व्यक्ति की उपमा हाथी से दो तरीके से की गई 147 69
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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