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________________ के समान मान कर उसका वर्जन करने की बात कही गई है। "वृत्तिकार ने स्त्रियों को विष से भी अधिक खतरनाक बताते हुए ये श्लोक उद्धत किए हैं - विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम्। अपभुक्तं विषं हन्ति विषया: स्मरणादपि।। विष और विषय में बहुत बड़ा अंतर है। विष तो खाने पर ही मारता है, किन्तु विषय स्मरण मात्र से मार डालते हैं। वारि (वरं) विस खइयं न विसयसुह इक्कसि विसिण मरंति। विसयामिस पुण घारिया नर णरएहिं पड़ति।। विषय सुख को भोगने के बदले विष खाना अच्छा है। विष केवल एक बार ही मारता है। विषयों से मारे जाने वाले पुरुष नरकों में पड़ते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में भी काम भोगों के लिए विष की उपमा का प्रयोग किया गया है। 15 सानुवाद व्यवहार भाष्य में विष की इस उपमा को और भी विस्तार दिया गया है। सूत्रकार के अनुसार पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष भाव विष है। घ्राणेंद्रिय, रसनेंद्रिय तथा स्पर्श इंद्रिय से गृहीत द्रव्य, प्राणी का एक बार अतिपात करता है और नहीं भी करता है। उससे प्राणी मरता भी है और नहीं मरता। भाव विष सर्वविषयानुसारी (पांचों इंद्रिय विषयों का संप्राषक) दुर्जय तथा अनेक बार अतिपात करता है, अनेक बार मारता है। हरिभद्र सूरी ने भी मैथुन को विष मिश्रित अन्न की तरह त्याज्य बताया है।" 4.13. तालपुट विष - उत्तराध्ययन सूत्र में भोगों के लिए इस उपमा का प्रयोग किया गया है। यह तीव्रतम विष होता है। जीभ पर रखते ही ताली बजाने जितने अल्प समय में ही व्यक्ति को मार डालता है। इसे सद्योघाती विष कहते हैं। दसवैकालिक सूत्र में विभूषा, स्त्री संसर्ग और प्रणीत रस भोजन को ब्रह्मचारी के लिए तालपुट विष के समान बताया है। उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचर्य की दस अगुप्तियों को तालपुट विष कहा गया है। 119 वहां विषय भोगों के लिए भी तालपुट विष का प्रयोग किया है। 120 4.14. आशीविष सर्प - आशीविष सर्प वे होते हैं जिनकी दाढ़ में विष होता है, वे मणिधारी सर्प होते हैं। उनकी दीप्तमणि से विभूषित फण लोगों को सुंदर लगते हैं। लोग उन फणों को स्पर्श करने की इच्छा का संवरण नहीं कर पाते। ज्यों ही वे उन सों का स्पर्श करते हैं, तत्काल उनके द्वारा डसे जाने पर मारे जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में काम की उपमा आशीविष सर्प से करते हुए कहा गया है कि काम भी लुभावना होता है और प्राणी इसका सहज शिकार हो जाता है। इसी सूत्र में प्रकारान्तर से सर्प की उपमा काम भोग में आसक्त व्यक्ति से की गई है। 66
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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