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________________ काम! जानामि ते रूपं संकल्पात् किल जायते। न त्वां संकल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि।। काम! मैं तुझे जानता हूं। तू संकल्प से पैदा होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा। तू मेरे मन में उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा। उत्तराध्ययन सूत्र की टिप्पण में आचार्य महाप्रज्ञ ने इस संदर्भ में गीता का एक श्लोक उद्धृत किया है। जिसमें काम की उत्पत्ति का बीज इंद्रिय विषयों का निरंतर चिंतन करना कहा गया है। ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते। संगात् जायते काम: कामात् क्रोधभिजायते।। क्रोधात् भवति संमोहः, संमोहात् स्मृति विभ्रमः। स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।। गीता 2/63-64 विषयों के चिंतन-ध्यान से उनके प्रति आसक्ति बढ़ जाती है। आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से विस्मृति और विस्मृति से बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि के नष्ट होने से व्यक्ति का ही नाश होता जाता है। 3.8 मान्यता/धारणा - आचारांग सूत्र में काम वासना के प्रति आकर्षण का कारण भोग में सुख है' इस मान्यता को भी माना गया है। उत्तराध्ययन में भी यह कहा गया है कि जिस व्यक्ति की काम भोग में सुख बुद्धि होती है वे अब्रह्मचर्य में ही रत रहते हैं। 3.9 कर्मों का उदय - काम वासना को उद्दीप्त करने वाले अन्य कारण बाह्य निमित्त मात्र हैं, मूल कारण है कर्म। कर्म इसका उपादान कारण है। आचारांग सूत्र में कर्म के उदय को काम वासना का हेतु माना गया है। 4 सूत्रकृतांग सूत्र में भी इसका समर्थन करते हुए कहा गया है कि जिनके पूर्वकृत कर्म नहीं होता वह काम-वासना का पार उसी प्रकार पा जाता है जिस प्रकार वायु, अग्नि की ज्वाला को पार कर जाती है। कर्मों के विभागों को स्पष्ट करते हुए ठाणं सूत्र मोहनीय कर्म को इसका कारण मानता है। भगवती सूत्र में भी अब्रह्मचर्य का कारण मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृति चारित्रावरणीय कर्म का उदय माना गया है। सूत्रकार कहते हैं कि जिनके चारित्रावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं है, वे भले ही केवल ज्ञानी से प्रेरणा प्राप्त कर लें, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते। उत्तराध्ययन सूत्र में पूर्व जन्म में किए गए निदान के द्वारा बंधे निकाचित कर्मों को भी भोगासक्ति के कारण के रूप में माना है। मुनि संभूत ने हस्तिनापुर में महान ऋद्धि वाले चक्रवर्ती सनतकुमार को देखकर भोगों में आसक्त होकर अशुभ निदान (यदि मेरी तप-साधना का कोई फल हो तो मैं 61
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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