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________________ 35 इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में भी अनेक स्थलों पर काम भोग के दुष्परिणाम जानकर स्त्री आदि का त्याग करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इस सूत्र में भगवान महावीर से पूछा गया - भगवन् ! प्रत्याख्यान से आत्मा को क्या प्राप्त होता है ? भगवान ने कहा - प्रत्याख्यान (त्याग) से व्यक्ति वितृष्ण हो जाता है मन को भाने वाले और न भाने वाले पदार्थों में उसका राग-द्वेष नहीं रहता।" आवश्यक सूत्र में भी त्याग की बात कही गई है'अबंभं परियाणामि, बंभं उवसम्पन्नामि । " 37 योगशास्त्र में चारित्र का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है - सर्वसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमिष्यते । कीर्तितं तदहिंसादि व्रतभेदेन पञ्चधा ।। सर्व प्रकार के सावद्य (पापमय) योगों का त्याग करना सम्यक् चारित्र कहलाता है। अहिंसा आदि व्रतों के भेद से वह पांच प्रकार का है।" 38 त्याग की कसौटियों को विस्तार देते हुए व्यवहार भाष्य में कहा गया है अविहिंस बंभचारी पोसाहिय अमज्जमंसियाऽचोरा | 7 - सति लंभ परिच्चाई, होंति दतक्खा न सेसा ।। - कोई कहता है - मैं अहिंसक वृत्ति का हूँ, जब तक मैं मृग आदि को नहीं देख लेता। कोई कहे मैं ब्रह्मचारी हूँ, जब तक मुझे स्त्री मिल नहीं जाती। कोई कहे मैं आहार पौषधी हूँ, जब तक मुझे आहार प्राप्त न हो। कोई कहे मैं अमद्यमांसाशी हूँ, जब तक मुझे मद्य और मांस प्राप्त न हो जाए। मैं अचोर हूँ, जब तक मुझे चोरी का अवसर नहीं मिलता। जो वस्तु की प्राप्ति होने पर भी उसका परित्याग करते हैं, वे ही वास्तव में तदाख्या अहिंसक, ब्रह्मचारी आदि कहलाने के योग्य होते हैं, शेष नहीं।" — मुनि सुमेरमलजी 'लाडनूं' ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है कि नारक, पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, अमनस्क मनुष्य और तियंच पंचेन्द्रिय को मैथुन सेवन का पाप तो नहीं लगता क्योंकि इनमें नपुंसक वेद होता है। फिर भी इन्हें ब्रह्मचर्य के पालन का लाभ नहीं मिलता क्योंकि मैथुन सेवन के अनुकूल स्थिति होने के बावजूद जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे ही ब्रह्मचर्य का लाभ मिलता है। 40 3.0. तप ब्रह्मचर्य विकास के लिए इसे अच्छी तरह जानने, इसमें विश्वास व रुचि रखने एवं अब्रह्मचर्य सेवन को त्यागने के पश्चात् आन्तरिक परिष्कार हेतु निरन्तर पुरुषार्थं आवश्यक है। जैन आगमों में आन्तरिक परिष्कार के लिए तप का विधान है। मनुष्य की चेतना में अब्रह्मचर्य के संस्कार अनेक जन्मों से होते हैं। तप के द्वारा जैसे-जैसे आत्म-निर्मलता बढती है, ब्रह्मचर्य का 171
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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