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________________ निदान करने वाले का ब्रह्मचर्य भी अब्रह्म के लिए ही होता है।'' 2.11.श्रोतेन्द्रिय संयम ब्रह्मचर्य की आठवीं गुप्ति स्थान में पांचों इन्द्रिय विषयों के संयम में श्रोतेन्द्रिय समाहित है। फिर भी आगमों में ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए श्रोतेन्द्रिय संयम को पृथक रूप से भी रखा गया है। मानसिक अध्यवसायों की शुद्धि-अशुद्धि पर शब्दों का गहरा प्रभाव पड़ता है। सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार गीत आदि तो वर्जनीय है ही, निमंत्रण रूप शब्दों का भी वर्जन करने को कहा गया है। इस सूत्र के चूर्णिकार ने शब्दों को दुस्तर बताते हुए निमंत्रण रूप शब्द के अनेक प्रकार बताए हैं णाह! प्रिय! कंत! समिय! दयित! वसुला! होल गोल! गुललेहि! जेणं जियमि तुब्भं पभवसि तं मे सरीरम।। हे नाथ! प्रिय, कान्त, स्वामिन्, दपित, वसुल, होलगोल, गुलल मैं आपके लिए ही जी रही हूँ। आप ही मेरे शरीर के स्वामी हैं।" ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में राजा पद्मनाभ द्रौपदी के रूप का वर्णन सुनकर कामान्ध हो कर उसका अपहरण कर लेता है। फलतः युद्ध होता है और उसकी हार होती है। इस प्रकरण का मूल श्रोतेन्द्रिय असंयम ही है।78 ___ उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए न केवल प्रत्यक्ष रूप से स्त्रियों के शब्द सुनने का निषेध है बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से जैसे मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रंदन या विलाप के शब्द को सुनने का भी निषेध है। 179 आवश्यक सूत्र की वृत्ति में विशेष रूप से भींत आदि के छिद्र से मैथुन- संसक्त स्त्रियों की क्वणित-ध्वनि को सुनने का निषेध है। 180 2.12. विभूषा वर्जन स्नान, उबटन आदि विभिन्न सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री का प्रयोग कर शरीर को सुन्दर और आकर्षक बनाने को "विभूषा'' करना कहते हैं। अन्तरात्मा भाव में रहने वाला ब्रह्मचारी शरीर को साधना का साधन मात्र मानता है वह शरीर में आसक्त नहीं होता है। विभूषा से व्यक्ति बहिरात्मभावी बनता है। दूसरी तरफ जो ब्रह्मचारी सज-धज कर रहता है वह स्त्रियों का काम्य बन जाता है। उसकी शरीर के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है। इसलिए जैन आगमों में स्थान-स्थान पर ब्रह्मचारी के लिए विभूषा का निषेध किया गया है। आचारांग सूत्र में शरीर की साज-सज्जा का निषेध है। सूत्रकृतांग में गंध, माल्य, स्नान, दांत पखालना आदि विभूषा के विभिन्न अंगों का नामोल्लेख करते हुए उन्हें त्यागने की 143
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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