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________________ 2.10. सात और सुख में प्रतिबद्ध न होना ठाणं एवं समवायांग सूत्र की ब्रह्मचर्य गुप्तियों में यह गुप्ति समान रूप से है। किन्तु उत्तराध्ययन आदि उत्तरवर्ती ग्रंथों में इस संबंध में स्पष्ट कुछ नहीं है। कथा-साहित्य में ऐसे अनेक उद्धरण मिलते हैं जिनसे भी यह सिद्ध होता है कि सात एवं सुख की प्रतिबद्धता से अनेक का ब्रह्मचर्य खण्डित हुआ है। सात और सुख के प्रति प्रतिबद्ध साधक भविष्य में उनकी प्राप्ति के लिए 'निदान' कर सकता है। 'निदान' जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है। जब कोई साधक विषय भोगों के प्रति अत्यन्त आसक्त होकर प्रतिबद्ध हो जाता है और वर्तमान की तपस्या आदि साधना के प्रतिफल में भोगों को पाने का संकल्प करता है, इसे 'निदान' कहा जाता है। निदान के दोष निदान करने से अनुष्ठित तप व चारित्र का खण्डन हो जाता है। इससे होने वाली हानियां बहुत विस्तृत है इसलिए निदान को 'शल्य', 'आर्त्तध्यान' तथा 'संलेखना के अतिचारों' के अंतर्गत रखा गया है।" दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र के दशम दशा में निदान के संदर्भ में विस्तृत वर्णन मिलता है। किसी देव, देवी, चक्रवर्ती आदि ऋद्धि सम्पन्न व्यक्ति को देखकर मोहाविष्ट होकर उनके विपुल भोगों को पाने के लिए निदान कर बैठने वाले साधक, हो सकता है एक बार उन भोगों को पा ले किन्तु उसके बाद निदान के दुष्परिणाम स्वरूप वे केवली प्ररूपित धर्म में न श्रद्धा रख सकते हैं न प्रतीति कर सकते हैं और न रुचि ही रख सकते हैं। वह धर्म श्रवण के योग्य नहीं रहता क्योंकि वह महातृष्णा, महारंभ एवं महापरिग्रह से युक्त होता है, अधर्म में आसक्त होता है। इसके फलस्वरूप नरक गति में जाता है और उसके पश्चात् भी आगामी भव में दुर्लभ बोधि होता है - सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता।" उत्तराध्ययन सूत्र में चित्र चक्रवर्ती भोगों के दुष्परिणामों को जानते हुए भी उनसे निवृत्त नहीं हो सका क्योंकि उसके पूर्व भव में उसने चक्रवर्ती की ऋद्धि को देखकर चक्रवर्ती होने का निदान कर लिया था और उसका प्रायश्चित्त नहीं किया था। इसके फलस्वरूप उसे सातवीं नरक में जाना पड़ा। भगवती आराधना में निदान के स्वरूप को विस्तार से बताया गया है। सूत्रकार कहते आवऽणत्थं जह ओसरणं मेसस्स होइ मेसादो। सणिदाण बंभचेरं अब्बभत्थ तहा होई।। जैसे एक मेढ़ा दूसरे मेढ़े पर अभिघात करने के लिए पीछे हटता है वैसे ही भोगों का 142
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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