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________________ दृष्टि संयम की उपेक्षा के परिणाम को राजीमती के मुख से सूत्रकार कहते हैं कि रागभाव से स्त्रियों को देखने से साधक अस्थितात्मा' हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी दृष्टि संयम के उपरोक्त निर्देश का उल्लेख प्राप्त होता है। वहाँ मुनि रथनेमि का उदाहरण देते हुए दृष्टि असंयम से 'चित्त भग्नता' होना बताया गया है। 2.6. प्रणीत रस वर्जन उत्तराध्ययन के व्याख्या ग्रंथ में प्रणीत का अर्थ इस प्रकार किया है - जिससे घृत, तेल आदि की बूंदें टपकती हो अथवा जो धातु वृद्धिकारक हो, उसे 'प्रणीत' आहार कहा जाता है। 124 "विकृति' इसका समानार्थक शब्द है। ठाणं सूत्र में विकृतियां नौ बताई गई हैं - 1. दूध 2. दही 3. नवनीत 4.घृत 5. तेल 6. गुड़ 7. मधु 8. मद्य 9. मांस। प्रवचन सारोद्धार वृत्ति में इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है - विकृतयो मनसो विकृतिहेतुत्वादिति। अर्थात् जो पदार्थ मानसिक विकार पैदा करते हैं उन्हें विकृति कहा गया ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए आचारांग सूत्र में निर्बल आहार का निर्देश है।" सूत्रकृतांग सूत्र केवल संयम भार वहन करने के लिए भोजन का पक्षधर है।12 ठाणं एवं समवायांग की ब्रह्मचर्य गुप्तियों में प्रणीत रस वर्जन चौथे स्थान पर है तथा उत्तराध्ययन एवं आवश्यक वृत्ति में इसे सातवें स्थान पर रखा गया है। 129 ज्ञाताधर्मकथा में इसका निर्देश प्रकारान्तर से कथानक के माध्यम से दिया गया है। यहां ब्रह्मचारी को यात्रामात्राशन होना आवश्यक बताया गया है। अर्थात् वह केवल जीवन यात्रा चलाने के लिए आहार करे। वर्ण, रूप, बल और विषय के लिए आहार न करे। सरस आहार के साथ आसक्ति भी बढ़ सकती है। आसक्ति और अनासक्ति के बीच बहुत सूक्ष्म भेद रेखा है। सूत्रकार ने इसे स्पष्ट करने के लिए एक दारुण घटना का प्रयोग किया है। 130 प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य की पांच भावनाओं में विकारवर्द्धक आहार का वर्णन कुछ विस्तार से किया गया है। स्वादिष्ट, गरिष्ठ एवं स्निग्ध (चिकनाई वाले) भोजन जैसे दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, खाण्ड, मिश्री, मधु, मद्य, मांस, खाद्य-पकवान आदि विगय धातु की वृद्धि करते हैं, इससे मानसिक उन्माद उत्पन्न होता है, इसलिए इनका संयम करना चाहिए। कुछ पदार्थ प्रणीत तो नहीं होते किन्तु उनके सेवन से इन्द्रियों में उत्तेजना बढ़ती है। ऐसे कामोद्दीपक पदार्थों का सेवन न करना। इनके अतिरिक्त वहां दाल और व्यंजन की अधिकता वाले भोजन का भी निषेध किया गया है। दसवैकालिक सूत्र में भी विकार वर्द्धक आहार का निषेध है।132 137
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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