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________________ सूत्रकृतांग सूत्र में दृष्टि संयम का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है- स्त्रियों से आंख नहीं मिलाना।" सूत्रकृतांग के वृत्तिकार इसकी व्याख्या में कहते हैं कि ब्रह्मचारी स्त्री के साथ चक्षु संधान-दृष्टि का दृष्टि के साथ समागम न करें। यदि स्त्री के साथ बात करने का अवसर आए तो मुनि उसे अस्निग्ध, रुखी और अस्थिर दृष्टि से देखें अवज्ञा भाव से कुछ समय तक एक बार देखकर निवृत्त हो जाए। 113 कार्येऽपिषन्मतिमान्निरीक्षते योषिदंगमस्थिरया । अस्निग्धया दृशाऽवज्ञया, हकुपितोऽपि कुपितइव ।। " 115 स्थानांग एवं समवायांग सूत्र में 'ब्रह्मचर्य गुप्ति' की श्रृंखला में स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को एकाग्रचित होकर दृष्टि गढ़ा कर देखने का निषेध है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में दृष्टि संयम के विस्तृत क्षेत्र का वर्णन किया गया है वहाँ नारियों के हास्य विकारमय भाषण, हाथ आदि की चेष्टाएं इशारे कटाक्षयुक्त निरीक्षण, गति चाल, विलास क्रीडा, कामोत्पादक संभाषण, नाट्य, नृत्य, गीत, वीणादि वादन, शरीर की आकृति, गौर, श्याम आदि वर्ण, हाथ पैर-नेत्र आदि अंगों का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, ओष्ठ, वस्त्र अलंकार और भूषण ललाट की बिन्दी आदि को तथा उसके गोपनीय अंगों को तथा इसी प्रकार की अन्य चेष्टाओं को जिनसे ब्रह्मचर्य का घात उपघात होता हो, को न केवल देखने का बल्कि वचन से उनके संबंध में बोलने तथा उनकी अभिलाषा करने तक का निषेध है। 10 116 - दसवैकालिक सूत्र में विविध स्थल पर दृष्टि संयम के निर्देश हैं वहाँ स्त्रियों के अंगप्रत्यंग तथा उनकी मधुर बोली और कटाक्ष को देखने का निषेध किया गया है। इसके दुष्परिणामों को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि ये काम राग को बढ़ाने वाले हैं इसलिए इन पर ध्यान ही न दें। यहाँ न केवल स्त्रियों को बल्कि स्त्रियों के चित्रों को भी टकटकी लगाकर देखने का निषेध है। यदि प्रमादवश नजर पड़ भी जाए तो इसका समाधान देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि अपनी दृष्टि को वैसे ही खींच लेना चाहिए जैसे मध्यान्ह के सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि स्वयं खिंच 117 118 जाती है। लोक व्यवहार में शंका की संभावना को देखते हुए सूत्रकार ने ब्रह्मचारी को रास्ते में गमनागमन करते समय घर के दरवाजे, खिड़कियां, पानीघर, आदि की तरफ उत्सुकतापूर्वक टकटकी लगाकर देखने का निषेध किया है।' 119 इस सूत्र में दृष्टि संयम का क्षेत्र दूसरों तक ही सीमित नहीं है। सूत्रकार ब्रह्मचारी को निष्कारण आइने आदि में स्वयं की परछाई देखने का भी निषेध करते हैं। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि इससे साधक बहिरात्मा बन जाता है वह स्वयं के ही रूप में मुग्ध हो जाता है। स्वयं को संवारने में लगा रहने से वह स्त्रियों का काम्य बन जाता है। इससे ब्रह्मचर्य असुरक्षित हो जाता है। 120 136
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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