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________________ है वरि विसु भुंजिउ मं विसय, एक्कसि विसिण मरंति। नर- विसयामिस मोहिया बहुसा नरइ पड़ति।। अर्थात् विष पीना अच्छा है, विषय नहीं। मनुष्य विष से एक ही बार मरते हैं, किंतु विषय रूपी मांस में मोहित मनुष्य अनेक बार मरते हैं, नरक में जाते हैं। व्यवहार भाष्य में अतृप्त काम के दुःख से मरने पर व्यंतर देवी बनने का उल्लेख मिलता है।" ज्ञानार्णव, योगशास्त्र, भगवती आराधना आदि ग्रंथों में भी कामासक्ति को नरक गति आदि दुर्गति का कारण भूत मानते हुए इसमें होने वाले कष्टों का विस्तृत वर्णन मिलता है। 2.6(7) भव वृद्धि (जन्म मरण की परंपरा बढ़ती है) - आचारांग सूत्र के अनुसार इंद्रिय विषय दो प्रकार का होता है - इष्ट और अनिष्ट। इष्ट विषय के प्रति राग और अनिष्ट विषय के प्रति द्वेष होता है। इस प्रकार विषयों से कषाय बढ़ता है और कषाय से संसार बढ़ता है - जन्म मरण की परंपरा बढ़ती है। अर्थात् विषयासक्ति के कारण जीव चतुर्गत्यात्मक संसार में भ्रमण करता रहता है। 199 ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के अनुसार जो मनुष्य शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध द्रव्यों में आसक्त, अनुरक्त, गृद्ध, मुग्ध होता है वह इस संसार में अनुपवर्तन करता रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी काम भोगों को संसार मुक्ति का विरोधी बताया गया है। 201 ज्ञानार्णव में पौद्गालिक भोगों की आकांक्षा को भोगार्तध्यान कहा है, इसे संसार परिभ्रमण का कारण बताया गया है। 02 2.6(8) आश्रव/ कर्म बंधन का हेतु - जीव की आध्यात्मिक दृष्टि से सबसे बड़ी हानि कर्म बंधन होती है। इसके कारण ही वह जन्म मरण चक्र में गोते खाता रहता है। आत्म स्वरूप को पाने में कर्म ही बाधक होते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से भी कर्म ही जीव को दु:ख देने वाला होता है। जैन आगमों में अब्रह्मचर्य को कर्म बंधन का मुख्य स्रोत बताया गया है। आचारांग सूत्र में भगवान महावीर का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि उन्होंने भी स्त्रियों को सभी कर्मों का आवाहन करने वाली जानकर उनका परिहार किया। सूत्रकृतांग सूत्र में भी काम भोग को कर्म बंधन का कारक बताते हुए आश्रवों में स्त्री प्रसंग को प्रधान आश्रव कहा गया है। 20 ठाणं सूत्र में पाप कर्म के आयतन के रूप में मैथुन को लिया गया है।205 भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञति) में भगवान महावीर जयंती श्राविका के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं - इंद्रिय विषयों में आसक्त जीव आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बंधन में बंधी हुई कर्म प्रकृतियों को गाढ़ (दृढ़) बंधन वाली करता है। अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मंद अनुभाग वाली प्रकृतियों को 107
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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