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________________ यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थेनादरः कृतः ।। अर्थात् मैंने मनुष्य जन्म पाकर यदि उत्तम अर्थ के प्रति आदर प्रदर्शित नहीं किया, मेरा यह आचरण वैसा ही हुआ जैसे मैंने मुक्कों से आकाश को पीटा और तुषों का खलिहान रचने का स्वांग किया है। 183 सूत्रकृतांग सूत्र में कामासक्त होकर व्यभिचार करने वाले व्यक्ति को मिलने वाले दण्ड का दारुण वर्णन किया गया है जैसे उसके हाथ पैर काटे जाते हैं, चमड़ी छीली जाती है, मांस निकाला जाता है, उन्हें आग में जलाया जाता है, उसके शरीर को काटकर नमक छिड़का जाता है अथवा उसके नाक-कान काटे जाते हैं, कंठ छेदन किया जाता है।" इसके अतिरिक्त परस्त्रीगामी जीवों के वृषण छेदे जाते हैं तथा अग्नि में तपे लोहस्तंभों का आलिंगन करने के लिए बाध्य किया जाता है। 185 ठाणं सूत्र में अब्रह्मचर्य की अभिलाषा मात्र करने को 'दुःख शय्या' कहकर उद्धृत किया है। सूत्र की भाषा में 'कोई व्यक्ति मुण्ड होकर आगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर देवताओं तथा मनुष्यों के काम भोगों का आस्वादन करता है। स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है वह उसका आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ, मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को प्राप्त होता है।' 186 दसवैकालिक सूत्र के अनुसार भी काम का निवारण नहीं करने वाला पग-पग पर विषादग्रस्त होता है। 187 188 189 190 उत्तराध्ययन सूत्र में काम भोगों को दुःख कर तो कहा ही है। 'यहाँ तक कहा गया है। कि काम भोगों की अभिलाषा भी दुःख का कारण है। 2.6 (5) उपसर्ग - ठाणं सूत्र में कुशील प्रतिसेवन के लिए उपसर्ग की बात कही गई है। 2.6(6) दुर्गति - चार गतियों में नरक व तिर्यंच गति में अति वेदना होने से उसे दुर्गति कहा जाता है। आचारांग सूत्र के अनुसार विषयासक्त मनुष्य हिंसा - परिग्रह आदि कारणों से नरक में उत्पन्न होता है। वहाँ से निकल कर वह तिर्यंचगति में जन्म लेता है। 1 ठाणं सूत्र में दुर्गति में जाने के कारणों में कामभोग के परिज्ञात नहीं होने तथा मैथुन को माना है। 191 192 ' 193 195 194 दसवैकालिक सूत्र में भी कामासक्त व्यक्ति के लिए सुगति दुर्लभ बताया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी अनेक स्थलों पर काम-भोगों को दुर्गति दायक बताया गया है। वहाँ यहाँ तक कहा गया है कि काम भोगों की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। * इस संदर्भ में सुख बोधा टीका में एक श्लोक प्रस्तुत किया गया 196 106
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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