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________________ माना है। यह भी स्पष्ट है कि विषय सेवन से व्यक्ति की शक्तियां क्षीण होती है। जिससे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति समय से पूर्व ही मृत्यु का शिकार हो जाता है। ठाणं सूत्र में भी कामासक्ति को अकाल मृत्यु के सात कारणों में से एक माना है। "ठाणं वृत्तिकार ने काम विकार के दोषों का विस्तृत वर्णन करते हुए अंतिम परिणति मृत्यु बताया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी कामासक्ति को मृत्यु का कारण माना है। सानुवाद व्यवहार भाष्य के अनुसार जिन गांवों और नगरों में स्त्रियां बलवान होती हैं अर्थात् कामासक्ति के कारण पुरुष कमजोर हो जाते हैं वहां अपर्व में मुंडन होता है अर्थात् अकाल मृत्यु होती है।" ज्ञानार्णव और भगवती आराधना में भी कामी पुरुष को मनोज्ञ स्त्री न मिलने पर विविध साधनों से आत्महत्या करने का उल्लेख मिलता है। 2.1(7) दण्ड - कामासक्ति से अंध बना व्यक्ति राष्ट्रीय एवं सामाजिक नियमों का उल्लंघन करता है। भगवती आराधना में ऐसे व्यक्ति को राजपुरुषों अथवा उस स्त्री के संबंधियों द्वारा वध, बंधन आदि से दंडित होना बताया है। सर्वार्थ सिद्धि में वध, बंधन के अतिरिक्त लिंग छेदन और सर्वस्व अपहरण आदि दंडों का भी उल्लेख किया गया है। 2.1(8) दु:ख - सूत्रकृतांग सूत्र में काम भोगों की आसक्ति को दुख का हेतु कहा गया है। सूत्रकार कहते हैं कि प्राणी जितना अधिक काम भोगों में लिप्त रहता है वह उतना ही अधिक शोक करता है, क्रंदन करता है, विलाप करता है। " ज्ञानार्णव में कहा गया है कि पिशाच, सर्प, रोग, दैत्य, ग्रह और राक्षस भी प्राणियों को उतनी पीड़ा नहीं देते जितनी काम की वेदना उसको पीड़ा दिया करती है न पिशाचोरग रोगा न दैत्यग्रहराक्षसाः । पीडयन्ति तथा लोकं यथेयं मदनव्यथा।। 2 भगवती आराधना में सूत्रकार कहते हैं जावइया फिर दोसा इहपरलोए दुहावहा होति। सव्वे वि आवहदि ते मेहुण सण्णा मणुस्सस्स।। अर्थात इस लोक और परलोक में दुःखदायी जितने भी दोष हैं, मनुष्य की मैथुन संज्ञा में वे सब दोष विद्यमान हैं। काम की वेदना के संबंध में सूत्रकार कहते हैं कि काम से पीड़ित मनुष्य का एक क्षण भी एक वर्ष की तरह बीतता है। उसके सब अंग वेदनाकारक होते हैं। "यहां भोग को त्रिकाल - भोग काल से पहले, भोग के समय और उसके बाद- दुःख का कारण कहा गया है। 15 सर्वार्थ सिद्धि में कारण में कार्य का उपचार करते हुए हिंसा आदि को दुःख ही कहा 91
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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