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________________ 64 होती जाती है। इससे मनुष्य इंद्रिय विषयों के प्रति और अधिक आसक्त हो जाता है। इस प्रकार इंद्रिय मूद्रता अयोग्यता की स्थिति को पाकर वह अनेक प्रकार के कष्ट उठाता है।' 2. 1 ( 4 ) निःसंतानता एक गृहस्थ के लिए संतान का महत्व शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक दृष्टियों से होता है वंश परंपरा का निर्वाह भी संतानोत्पत्ति से होता है। परंतु असंयमित काम भोग मनुष्य की इस अपेक्षा में भी बाधक होता है। ठाणं सूत्र में स्त्री पुरुष का सहवास करती हुई भी गर्भधारण न कर पाने के पांच कारणों का वर्णन हैं अप्राकृतिक काम क्रीड़ा करना, अत्यधिक पुरुष सहवास करना या अनेक पुरुषों से - सहवास करना।' 65 वृत्तिकार ने वेश्या का उदाहरण देकर इस तथ्य को पुष्ट किया है।' आयुर्वेद ग्रंथों में पुरुषों के लिए संतानोत्पत्ति के अयोग्य होने का कारण अति अब्रह्मचर्य को माना है। 67 2.1(5) रोग : आचारांग के भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने अब्रह्मचर्य से रोगों की उत्पत्ति की संभावना व्यक्त करते हुए इससे भंगदर, वात, धातुक्षय आदि रोग उत्पन्न होना माना है। आधुनिक युग में एड्स को अब्रह्मचर्य के कारण होने वाला एक असाध्य एवं सद्योघाती रोग माना जाता है। ठाणं सूत्र में भी रोग की उत्पत्ति के नौ स्थानों में एक इंद्रियार्थ विकोपन अर्थात् काम विकार को माना गया है। 68 दसवैकालिक सूत्र के नियुक्तिकार ने काम को रोग बताते हुए कहा हैअन्नपि य से नाम कामा रोगत्ति पंडिया विंति । कामेपत्थेमाणो रोगे पत्थेइ खलु जन्तू ।। अर्थात् पंडित काम को रोग कहते हैं जो कामों की प्रार्थना करते हैं वे प्राणी निश्चय ही रोगों की प्रार्थना करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार आसक्ति के साथ अनियंत्रित भोग भोगने से शरीर में अचानक उत्पन्न होने वाले रोग हो जाते हैं। इन्हें आतंक कहा जाता है। 70 ज्ञानार्णव में मैथुन के कारण होने वाले रोगों की सूची को आगे बढ़ाया है। इसके अनुसार मैथुन से ग्लानि (खेद), मूर्छा, भ्रान्ति, कम्प, श्रम ( थकावट), स्वेद (ताप या पसीना ) अंग विकार और क्षयरोग आदि रोग होते हैं। 71 72 योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने उपरोक्त रोगों के अतिरिक्त भ्रमि (चक्कर आना), शक्ति का विनाश तथा खांसी, श्वास आदि रोगों का कारण भी मैथुन को सेवन माना गया है। 2. 1 (6) अकाल मृत्यु आचारांग भाष्य के अनुसार विषयों में अति आसक्त मनुष्य अपनी मनोगत स्त्री के न मिलने पर आत्महत्या कर लेता है। इसलिए विषयासक्ति को मृत्यु के समान 90 -
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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