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________________ मोक्षमाला - शिक्षापाठ ४८. कपिलमुनि - भाग ३ बहुतसे हैं, इनमें मैं नामांकित कहाँसे हो पाऊँगा? इसलिये करोड मुहरें माँग लूँ कि जिससे मैं महान श्रीमान कहा जाऊँ। फिर रंग बदला । महती श्रीमत्तासे भी घरमें सत्ता नहीं कहलायेगी, इसलिये राजाका आधा राज्य माँगें । परंतु यदि आधा राज्य माँगूंगा तो भी राजा मेरे तुल्य गिना जायगा; और फिर मैं उसका याचक भी माना जाऊँगा। इसलिये माँयूँ तो पूरा राज्य ही माँग लूँ। इस तरह वह तृष्णामें डूबा; परंतु वह था तुच्छ संसारी, इसलिये फिरसे पीछे लौटा। भले जीव ! मुझे ऐसी कृतघ्नता किसलिये करनी पडे कि जो मुझे इच्छानुसार देनेको तत्पर हुआ उसीका राज्य ले लेना और उसीको भ्रष्ट करना? यथार्थ दृष्टिसे तो इसमें मेरी ही भ्रष्टता है। इसलिये आधा राज्य माँगू; परन्तु यह उपाधि भी मुझे नहीं चाहिये। तब पैसेकी उपाधि भी कहाँ कम है ? इसलिये करोड, लाख छोडकर सौ दो सौ मुहरें ही माँग लूँ। जीव ! सौ दो सौ मुहरे अभी मिलेगी तो फिर विषय-वैभवमें वक्त चला जायगा; और विद्याभ्यास भी धरा रहेगा; इसलिये अभी तो पाँच मुहरें ही ले जाऊँ, पीछेकी बात पीछे । अरे ! पाँच मुहरोंकी भी अभी कुछ जरूरत नहीं है; मात्र दो माशा सोना लेने आया था वही माँग लूँ । जीव ! यह तो हद हो गई। तृष्णासमुद्रमें तूने बहुत गोते खाये । संपूर्ण राज्य माँगते हुए भी जो तृष्णा नहीं बुझती थी, मात्र संतोष एवं विवेकसे उसे घटाया तो घट गई। यह राजा यदि चक्रवर्ती होता तो फिर मैं इससे विशेष क्या माँग सकता था? और जब तक विशेष न मिलता तब तक मेरी तृष्णा शांत भी न होती; जब तक तृष्णा शांत न होती तब तक मैं सुखी भी न होता। इतनेसे भी मेरी तृष्णा दूर न हो तो फिर दो माशेसे कहाँसे दूर होगी? उसका आत्मा सुलटे भावमें आया और वह बोला, "अब मुझे दो माशे सोनेका भी कुछ काम नहीं; दो माशेसे बढकर मैं किस हद तक पहुँचा ! सुख तो संतोषमें ही है। यह तृष्णा संसारवृक्षका बीज है। इसकी हे जीव ! तुझे क्या आवश्यकता है? विद्या ग्रहण करते हुए तू विषयमें पड गया; विषयमें पडनेसे इस उपाधिमें पडा; उपाधिके कारण तू अनंत तृष्णासमुद्रकी तरंगोंमें पड़ा। इस प्रकार एक उपाधिसे इस संसारमें अनंत उपाधियाँ सहनी पडती हैं। इसलिये इसका त्याग करना उचित है। सत्य संतोष जैसा निरुपाधि सुख एक भी नहीं है।" यों विचार करते करते तृष्णाको शान्त करनेसे उस कपिलके अनेक आवरण क्षय हो गये। उसका अंतःकरण प्रफुल्लित और बहुत विवेकशील हो गया। विवेक ही विवेकमें उत्तम ज्ञानसे वह स्वात्माका विचार कर सका। अपूर्व श्रेणिपर चढकर वह केवलज्ञानको प्राप्त हुआ ऐसा कहा जाता है। तृष्णा कैसी कनिष्ठ वस्तु है ! ज्ञानी ऐसा कहते हैं कि तृष्णा आकाश जैसी अनंत है। निरंतर वह नवयौवना रहती है। कुछ चाह जितना मिला कि वह चाहको बढा देती है। संतोष ही कल्पवृक्ष है; और यही मात्र मनोवांछाको पूर्ण करता है।
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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