SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमाला शिक्षापाठ ४३. अनुपम क्षमा जल जैसे वचनोंसे राजा क्रोधायमान हुआ। उसने सुदर्शनको शूलीपर चढा देनेकी तत्काल आज्ञा कर दी, और तदनुसार सब कुछ हो भी गया । मात्र सुदर्शनके शूली पर चढनेकी देर थी । चाहे जो हो परंतु 'सृष्टिके' दिव्य भंडारमें उजाला है। सत्यका प्रभाव ढका नहीं रहता। सुदर्शनको शूलीपर बिठाया कि शूली मिट कर जगमगाता हुआ सोनेका सिंहासन हो गया, और देवदुंदुभिका नाद हुआ, सर्वत्र आनंद छा गया। सुदर्शनका सत्य शील विश्वमंडलमें झलक उठा। सत्य शीलकी सदा जय है। शील और सुदर्शनकी उत्तम दृढता ये दोनों आत्माको पवित्र श्रेणिपर चढाते है ! शिक्षापाठ ४३ : अनुपम क्षमा क्षमा अंतर्शत्रुको जीतनेका खड्ग है। पवित्र आचारकी रक्षा करनेका बख्तर है। शुद्धभावसे असह्य दु:खमें सम-परिणामसे क्षमा रखनेवाला मनुष्य भवसागरको तर जाता है। गजसुकुमारका दृष्टांत कृष्ण वासुदेवके गजसुकुमार नामके छोटे भाई महा सुरूपवान एवं सुकुमार मात्र बारह वर्षकी आयुमें भगवान नेमिनाथके पास संसारत्यागी होकर स्मशानमें उग्रध्यानमें स्थित थे; तब वे एक अद्भुत क्षमामय चरित्रसे महा सिद्धिको पा गये, उसे मैं यहाँ कहता हूँ । सोमल नामके ब्राह्मणकी सुरूपवर्णसंपन्न पुत्रीके साथ गजसुकुमारकी सगाई हुई थी । परंतु विवाह होनेसे पहले गजसुकुमार तो संसार त्याग कर चले गये। इसलिये अपनी पुत्रीके सुखनाशके द्वेषसे उस सोमल ब्राह्मणको भयंकर क्रोध व्याप्त हो गया। गजसुकुमारकी खोज करता करता वह उस स्मशानमें आ पहुँचा जहाँ महा मुनि गजसुकुमार एकाग्र विशुद्ध भावसे कायोत्सर्गमें थे । उसने कोमल गजसुकुमारके माथेपर चिकनी मिट्टीकी बाड बनाई और उसके अंदर धधकते हुए अंगारे भरे और ईंधन भरा जिससे महा ताप उत्पन्न हुआ। इससे गजसुकुमारकी कोमल देह जलने लगी तब सोमल वहाँसे जाता रहा। उस समय गजसुकुमारके असह्य दुःखके बारेमें भला क्या कहा जाये ? परंतु तब वे समभाव परिणाममें रहे । किंचित् क्रोध या द्वेष उनके हृदयमें उत्पन्न नहीं हुआ। अपने आत्माको स्वरूपस्थित करके बोध दिया, "देख! यदि तूने इसकी पुत्रीके साथ विवाह किया होता तो यह कन्यादानमें तुझे पगडी देता । वह पगडी थोडे समयमें फट जानेवाली तथा परिणाममें दुःखदायक होती । यह इसका बडा उपकार हुआ कि उस पगडीके बदले इस मोक्षकी पगडी बँधवायी ।" ऐसे विशुद्ध परिणामोंसे अडिग रहकर समभावसे उस असह्य वेदनाको सहकर, सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर वे अनंत जीवनसुखको प्राप्त हुए कैसी अनुपम क्षमा और कैसा उसका सुन्दर परिणाम ! तत्त्वज्ञानियोंके वचन हैं कि आत्मा मात्र स्वसद्भावमें आना चाहिये, और वह उसमें आया तो मोक्ष हथेलीमें ही है। गजसुकुमारकी प्रसिद्ध क्षमा कैसा विशुद्ध बोध देती है ! ५२
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy