SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमाला-शिक्षापाठ ३३. सुदर्शन सेठ यह बात केवल बोध लेनेके लिये है। एक चांडालकी भी विनय किये बिना श्रेणिक जैसे राजाको विद्या सिद्ध न हुई, तो इसमेंसे यह तत्त्व ग्रहण करना है कि, सद्विद्याको सिद्ध करनेके लिये विनय करनी चाहिये । आत्मविद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुकी विनय करें तो कैसा मंगलदायक हो ! विनय यह उत्तम वशीकरण है। भगवानने उत्तराध्ययनमें विनयको धर्मका मूल कहकर वर्णित किया है। गुरुकी, मुनिकी, विद्वानकी, माता-पिताकी, और अपनेसे बडोंकी विनय करनी यह अपनी उत्तमताका कारण है। शिक्षापाठ ३३ : सुदर्शन सेठ प्राचीन कालमें शुद्ध एकपत्नीव्रतको पालनेवाले असंख्य पुरुष हो गये हैं; उनमेंसे संकट सहन करके प्रसिद्ध होनेवाला सुदर्शन नामका एक सत्पुरुष भी है। वह धनाढ्य, सुन्दर मुखाकृतिवाला, कांतिमान् और युवावस्थामें था। जिस नगरमें वह रहता था, उस नगरके राजदरबारके सामनेसे किसी कार्य-प्रसंगके कारण उसे निकलना पड़ा। वह जब वहाँसे निकला तब राजाकी अभया नामकी रानी अपने आवासके झरोखेमें बैठी थी। वहाँसे सुदर्शनकी ओर उसकी दृष्टि गयी। उसका उत्तम रूप और काया देखकर उसका मन ललचाया। एक अनुचरीको भेजकर कपटभावसे निर्मल कारण बताकर सुदर्शनको ऊपर बुलाया। अनेक प्रकारकी बातचीत करनेके बाद अभयाने सुदर्शनको भोग भोगनेका आमंत्रण दिया । सुदर्शनने बहुत-सा उपदेश दिया तो भी उसका मन शांत नहीं हुआ। आखिर तंग आकर सुदर्शनने युक्तिसे कहा, "बहिन ! मैं पुरुषत्वहीन हूँ !" तो भी रानीने अनेक प्रकारके हावभाव किये। परंतु उन सारी कामचेष्टाओंसे सुदर्शन विचलित नहीं हुआ; इससे तंग आकर रानीने उसे जाने दिया। एक बार उस नगरमें उत्सव था, इसलिये नगरके बाहर नगरजन आनंदसे इधर-उधर घूमते थे। धूमधाम मची हुई थी। सुदर्शन सेठके छः देवकुमार जैसे पुत्र भी वहाँ आये थे। अभया रानी कपिला नामकी दासीके साथ ठाठबाटसे वहाँ आयी थी। सुदर्शनके देवपुतले जैसे छः पुत्र उसके देखनेमें आये। उसने कपिलासे पूछा, "ऐसे रम्य पुत्र किसके हैं ?" कपिलाने सुदर्शन सेठका नाम लिया। यह नाम सुनते ही रानीकी छातीमें मानो कटार भोंकी गयी, उसे घातक चोट लगी। सारी धूमधाम बीत जानेके बाद माया-कथन गढकर अभया और उसकी दासीने मिलकर राजासे कहा-"आप मानते होंगे कि मेरे राज्यमें न्याय और नीतिका प्रवर्तन है, दुर्जनोंसे मेरी प्रजा दुःखी नहीं है; परंतु यह सब मिथ्या है। अंतःपुरमें भी दुर्जन प्रवेश करें यहाँ तक अभी अंधेर है ! तो फिर दूसरे स्थानोंके लिये तो पूछना ही क्या? आपके नगरके सुदर्शन नामके सेठने मुझे भोगका आमंत्रण दिया; न कहने योग्य कथन मुझे सुनने पडे; परंतु मैंने उसका तिरस्कार किया। इससे विशेष अंधेर कौनसा कहा जाय !" राजा मूलतः कानके कच्चे होते हैं, यह बात तो यद्यपि सर्वमान्य ही है, उसमें फिर स्त्रीके मायावी मधुर वचन क्या असर नहीं करेंगे? तत्ते तेलमें ठंडे ५०
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy