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________________ मोक्षमाला - शिक्षापाठ ३०. सर्व जीवोंकी रक्षा - भाग २ ही बोध देना चाहिये। सर्व जीवोंकी रक्षा करनेके लिये एक बोधदायक उत्तम युक्ति बुद्धिशाली अभयकुमारने की थी उसे मैं अगले पाठमें कहता हूँ। इसी प्रकार तत्त्वबोधके लिये यौक्तिक न्यायसे अनार्य जैसे धर्ममतवादियोंको शिक्षा देनेका अवसर मिले तो हम कैसे भाग्यशाली ! शिक्षापाठ ३० : सर्व जीवोंकी रक्षा-भाग २ अभयकुमारकी युक्ति मगध देशकी राजगृही नगरीका अधिराज श्रेणिक एक बार सभा भरकर बैठा था। प्रसंगोपात्त बातचीतके दौरान जो मांसलुब्ध सामंत थे वे बोले कि आजकल मांस विशेष सस्ता है। यह बात अभयकुमारने सुनी। इसलिये उसने उन हिंसक सामंतोंको बोध देनेका निश्चय किया। सायं सभा विसर्जित हुई; राजा अंतःपुरमें गया। उसके बाद अभयकुमार कर्तव्यके लिये जिस-जिसने मांसकी बात कही थी उस-उसके घर गया। जिसके घर गया वहाँ स्वागत करनेके बाद उसने पूछा-"आप किसलिये परिश्रम उठा कर मेरे घर पधारे हैं ?" अभयकुमारने कहा"महाराजा श्रेणिकको अकस्मात् महारोग उत्पन्न हुआ है। वैद्योंको इकट्ठे करनेपर उन्होंने कहा कि कोमल मनुष्यके कलेजेका सवा टंकभर मांस हो तो यह रोग मिटे । आप राजाके प्रियमान्य हैं, इसलिये आपके यहाँ यह मांस लेने आया हूँ।" सामंतने विचार किया-"कलेजेका मांस मैं मरे बिना किस तरह दे सकता हूँ?" इसलिये अभयकुमारसे पूछा- “महाराज, यह तो कैसे हो सकता हैं ?" ऐसा कहनेके बाद अपनी बात राजाके आगे प्रगट न करनेके लिये अभय-कुमारको बहुतसा द्रव्य 'दिया जिसे वह' अभयकुमार लेता गया। इस प्रकार अभयकुमार सभी सामंतोंके घर फिर आया । सभी मांस न दे सके और अपनी बातको छुपानेके लिये उन्होंने द्रव्य दिया। फिर जब दूसरे दिन सभा मिली तब सभी सामंत अपने-अपने आसनपर आकर बैठे। राजा भी सिंहासनपर विराजमान था। सामंत आ-आकर राजासे कलकी कुशल पूछने लगे। राजा इस बातसे विस्मित हुआ। अभयकुमारकी ओर देखा। तब अभयकुमार बोला-"महाराज ! कल आपके सामंत सभामें बोले थे कि आजकल मांस सस्ता मिलता है, इसलिये मैं उनके यहाँ मांस लेने गया था; तब सबने मुझे बहुत द्रव्य दिया; परंतु कलेजेका सवा पैसा भर मांस नहीं दिया। तब यह मांस सस्ता या महँगा ?" यह सुनकर सब सामंत शरमसे नीचे देखने लगे; कोई कुछ बोल न सका। फिर अभयकुमारने कहा-"यह मैंने कुछ आपको दुःख देनेके लिये नहीं किया परंतु बोध देनेके लिये किया है। यदि हमें अपने शरीरका मांस देना पडे तो अनंत भय होता है, क्योंकि हमें अपनी देह प्रिय है। इसी प्रकार जिस जीवका वह मांस होगा उसे भी अपना जीव प्यारा होगा। जैसे हम अमूल्य वस्तुएँ देकर भी अपनी देहको बचाते हैं वैसे ही उन बिचारे पामर प्राणियोंको भी होना चाहिये। हम समझवाले बोलते-चालते प्राणी हैं, वे बिचारे अवाचक और नासमझ हैं। उन्हें मौतका दुःख दें यह कैसा पापका प्रबल कारण है ? हमें इस वचनको निरंतर ४६
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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