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________________ मोक्षमाला -शिक्षापाठ २९. सर्व जीवोंकी रक्षा - भाग १ करते-करते हजारके हजार देवता चले गये। तब चर्मरत्न डूब गया; अश्व, गज और सर्व सैन्यसहित सुभूम नामका वह चक्रवर्ती भी डूब गया। पापभावनामें और पापभावनामें मरकर वह अनंत दुःखसे भरे हुए सातवें तमतमप्रभा नरकमें जाकर पडा। देखो ! छः खंडका आधिपत्य तो भोगना एक ओर रहा; परंतु अकस्मात् और भयंकर रीतिसे परिग्रहकी प्रीतिसे इस चक्रवर्तीकी मृत्यु हुई, तो फिर दूसरेके लिये तो कहना ही क्या ? परिग्रह पापका मूल है; पापका पिता है; अन्य एकादश व्रतको महादूषित कर दे ऐसा इसका स्वभाव है। इसलिये आत्महितैषीको यथासंभव इसका त्याग करके मर्यादापूर्वक आचरण करना चाहिये। शिक्षापाठ २९ : सर्व जीवोंकी रक्षा-भाग १ दया जैसा एक भी धर्म नहीं है। दया ही धर्मका स्वरूप है। जहाँ दया नहीं वहाँ धर्म नहीं। जगतीतलमें ऐसे अनर्थकारक धर्ममत विद्यमान हैं जो, जीवका हनन करनेमें लेश भी पाप नहीं होता, बहुत तो मनुष्यदेहकी रक्षा करो, ऐसा कहते हैं। इसके अतिरिक्त ये धर्ममतवाले जनूनी और मदांध हैं, और दयाका लेश स्वरूप भी नहीं जानते । यदि ये लोग अपने हृदयपटको प्रकाशमें रखकर विचार करें तो उन्हें अवश्य मालूम होगा कि एक सूक्ष्मसे सूक्ष्म जंतुके हननमें भी महापाप है। जैसा मुझे अपना आत्मा प्रिय है, वैसा उसे भी अपना आत्मा प्रिय है । मैं अपने थोडेसे व्यसनके लिये या लाभके लिये ऐसे असंख्यात जीवोंका बेधडक हनन करता हूँ, यह मुझे कितने अधिक अनंत दुःखका कारण होगा? उनमें बुद्धिका बीज भी न होनेसे वे ऐसा विचार नहीं कर सकते। वे दिन-रात पाप ही पापमें मग्न रहते हैं। वेद और वैष्णव आदि पंथोंमें भी सूक्ष्म दयासंबंधी कोई विचार देखनेमें नहीं आता, तो भी ये दयाको सर्वथा न समझनेवालोंकी अपेक्षा बहुत उत्तम हैं। स्थूल जीवोंकी रक्षा करनेमें ये ठीक समझे हैं; परंतु इन सबकी अपेक्षा हम कैसे भाग्यशाली हैं कि जहाँ एक पुष्पपंखडीको भी पीडा हो वहाँ पाप है, इस यथार्थ तत्त्वको समझे हैं और यज्ञयागादिकी हिंसासे तो सर्वथा विरक्त रहे हैं । जहाँ तक हो सके वहाँ तक जीवोंको बचाते हैं; फिर भी जानबूझकर जीवहिंसा करनेकी हमारी लेशमात्र इच्छा नहीं है। अनंतकाय अभक्ष्यसे प्रायः हम विरक्त ही हैं। इस कालमें यह समस्त पुण्यप्रताप सिद्धार्थ भूपालके पुत्र महावीरके कहे हुए परम तत्त्वबोधके योगबलसे बढा है। मनुष्य ऋद्धि पाते हैं, सुन्दर स्त्री पाते हैं, आज्ञाकारी पुत्र पाते हैं, बडा कुटुंब परिवार पाते हैं, मानप्रतिष्ठा और अधिकार पाते हैं, और यह सब पाना कुछ दुर्लभ नहीं है; परंतु यथार्थ धर्मतत्त्व या उसकी श्रद्धा या उसका थोडा अंश भी पाना महादुर्लभ है। यह ऋद्धि इत्यादि अविवेकसे पापका कारण होकर अनंत दुःखमें ले जाती है; परंतु यह थोडी श्रद्धाभावना भी उत्तम पदवीपर पहुँचाती है। ऐसा दयाका सत्परिणाम है। हमने धर्मतत्त्वयुक्त कलमें जन्म पाया है, तो अब यथासंभव हमें विमल दयामय वर्तनको अपनाना चाहिये। वारंवार यह ध्यानमें रखना चाहिये कि सब जीवोंकी रक्षा करनी है। दूसरोंको भी युक्ति-प्रयुक्तिसे ऐसा
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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