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________________ मोक्षमाला-शिक्षापाठ २५. परिग्रहको मर्यादित करना अर्थात् तीन वर्षके 'व्रीहि', आपको कहाँ याद नहीं है ?" वसुराजाने कहा-"अजका अर्थ है बकरा, व्रीहि नहीं।" उसी समय देवताने उसे सिंहासनसे उछालकर नीचे पटक दिया; वसु कालपरिणामको प्राप्त हुआ। इसपरसे यह मुख्य बोध मिलता है कि "हम सबको सत्य और राजाको सत्य एवं न्याय दोनों ग्रहण करने योग्य हैं।' भगवानने जो पाँच महाव्रत प्रणीत किये हैं, उनमेंसे प्रथम महाव्रतकी रक्षाके लिए शेष चार व्रत बाडरूप हैं; और उनमें भी पहली बाड सत्य महाव्रत है। इस सत्यके अनेक भेदोंको सिद्धांतसे श्रवण करना आवश्यक है। शिक्षापाठ २५ : परिग्रहको मर्यादित करना जिस प्राणीको परिग्रहकी मर्यादा नहीं है, वह प्राणी सुखी नहीं है। उसे जो मिला वह कम है; क्योंकि उसे जितना मिलता जाये उतनेसे विशेष प्राप्त करनेकी उसकी इच्छा होती है। परिग्रहकी प्रबलतामें जो कुछ मिला हो उसका सुख तो भोगा नहीं जाता, परंतु जो होता है वह भी कदाचित् चला जाता है। परिग्रहसे निरंतर चलविचल परिणाम और पापभावना रहती है; अकस्मात् योगसे ऐसी पापभावनामें यदि आयु पूर्ण हो जाये तो बहुधा अधोगतिका कारण हो जाता है। संपूर्ण परिग्रह तो मुनीश्वर त्याग सकते हैं; परंतु गृहस्थ उसकी अमुक मर्यादा कर सकते हैं। मर्यादा हो जानेसे उससे अधिक परिग्रहकी उत्पत्ति नहीं है; और इसके कारण विशेष भावना भी बहुधा नहीं होती; और फिर जो मिला है उसमें संतोष रखनेकी प्रथा पडती है, जिससे सुखमें समय बीतता है। न जाने लक्ष्मी आदिमें कैसी विचित्रता है कि ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है त्यों-त्यों लोभ बढता जाता है। धर्मसंबंधी कितना ही ज्ञान होने पर, धर्मकी दृढता होने पर भी परिग्रहके पाशमें पडा हुआ पुरुष कोई विरल ही छूट सकता है; वृत्ति इसीमें लटकी रहती है; परंतु यह वृत्ति किसी कालमें सुखदायक या आत्महितैषी नहीं हुई है। जिन्होंने इसकी मर्यादा कम नहीं की वे बहुत दुःखके भोगी हुए हैं। सुभुम चक्रवर्तीका दृष्टांत छ: खंडोंको जीतकर आज्ञा मनानेवाले राजाधिराज चक्रवर्ती कहलाते है। इन समर्थ चक्रवर्तियोंमें सुभूम नामक एक चक्रवर्ती हो गया है। उसने छ: खंड जीत लिये इसलिए वह चक्रवर्ती माना गया; परंतु इतनेसे उसकी मनोवांछा तृप्त न हुई, अभी वह प्यासा रहा । इसलिए धातकी खंडके छ: खंड जीतनेका उसने निश्चय किया। “सभी चक्रवर्ती छ: खंड जीतते हैं; और मैं भी इतने ही जीतूं, इसमें महत्ता कौनसी? बारह खंड जीतनेसे मैं चिरकाल तक नामांकित रहूँगा, और उन खंडोंपर जीवनपर्यंत समर्थ आज्ञा चला सकूँगा।" इस विचारसे उसने समुद्रमें चर्मरत्न छोडा, उसपर सर्व सैन्यादिका आधार था । चर्मरत्नके एक हजार देवता सेवक कहे जाते हैं; उनमेंसे प्रथम एकने विचार किया कि न जाने कितने ही वर्षों में इससे छुटकारा होगा? इसलिये देवांगनासे तो मिल आऊँ, ऐसा सोचकर वह चला गया; फिर दूसरा गया; तीसरा गया; और यों ४२
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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