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________________ भावनाबोध - निवृत्तिबोध सिद्धि है, यह कहनेका आशय है। वहाँपर निःशंक होनेके लिए यहाँ नाममात्रका व्याख्यान किया है। आत्माके शुभ कर्मका जब उदय आता है तब उसे मनुष्यदेह प्राप्त होती है। मनुष्य अर्थात् दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, एक मुख, दो ओष्ठ और एक नाकवाली देहका अधीश्वर ऐसा नहीं है। परन्तु उसका मर्म कुछ और ही है। यदि इस प्रकार अविवेक दिखायें तो फिर वानरको मनुष्य माननेमें क्या दोष है ? उस बेचारेने तो एक पूँछ भी अधिक प्राप्त की है। पर नहीं, मनुष्यत्वका मर्म यह है-विवेकबुद्धि जिसके मनमें उदित हुई है, वही मनुष्य है; बाकी सभी इसके बिना दो पैरवाले पशु ही हैं। मेधावी पुरुष निरंतर इस मानवत्वका मर्म इसी प्रकार प्रकाशित करते हैं। विवेकबुद्धिके उदयसे मुक्तिके राजमार्गमें प्रवेश किया जाता है। और इस मार्गमें प्रवेश यही मानवदेहकी उत्तमता है। फिर भी इतना स्मृतिमें रखना उचित है कि यह देह केवल अशुचिमय और अशुचिमय ही है। इसके स्वभावमें और कुछ भी नहीं है। ___ भावनाबोध ग्रन्थमें अशुचिभावनाके उपदेशके लिए प्रथम दर्शनके पाँचवें चित्रमें सनत्कुमारका दृष्टांत और प्रमाणशिक्षा पूर्ण हुए। अंतर्दर्शन : षष्ठ चित्र निवृत्तिबोध (नाराच छंद) अनंत सौख्य नाम दुःख त्यां रही न मित्रता ! अनंत दुःख नाम सौख्य प्रेम त्यां, विचित्रता !! उघाड न्याय-नेत्र ने निहाळ रे ! निहाळ तुं; निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तुं॥ विशेषार्थ-जिसमें एकांत और अनंत सुखकी तरंगें उछलती हैं ऐसे शील, ज्ञानको नाममात्रके दुःखसे तंग आकर, मित्ररूप न मानते हुए उनमें अप्रीति करता है; और केवल अनंत दुःखमय ऐसे जो संसारके नाममात्रके सुख हैं, उनमें तेरा परिपूर्ण प्रेम है, यह कैसी विचित्रता है ! अहो चेतन ! अब तू अपने न्यायरूपी नेत्रोंको खोलकर देख ! रे देख !!! देखकर शीघ्रमेव निवृत्ति अर्थात् महावैराग्यको धारण कर, और मिथ्या कामभोगकी प्रवृत्तिको जला दे! __ऐसी पवित्र महानिवृत्तिको दृढीभूत करनेके लिए उच्च विरागी युवराज मृगापुत्रका मनन करने योग्य चरित्र यहाँ प्रस्तुत करते हैं। तूने कैसे दुःखको सुख माना है ? और कैसे सुखको दुःख माना है ? इसे युवराजके मुखवचन तादृश सिद्ध करेंगे। मृगापुत्र दृष्टान्त-नाना प्रकारके मनोहर वृक्षोंसे भरे हुए उद्यानोंसे सुशोभित सुग्रीव नामक एक
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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