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________________ अशुचिभावना - सनत्कुमार चक्रवर्ती करके यह चौथा चित्र पूर्णताको प्राप्त हुआ। यह यथोचित वैराग्य भाव प्रदर्शित करके ज्ञानीपुरुषोंके मनको रंजन करनेवाला हो! भावनाबोध ग्रन्थमें अन्यत्वभावनाके उपदेशके लिए प्रथम दर्शनके चतुर्थ चित्रमें भरतेश्वरका दृष्टांत और प्रमाणशिक्षा पूर्णताको प्राप्त हुए। पंचम चित्र अशुचिभावना (गीतिवृत्त) खाण मूत्र ने मळनी, रोग जरानुं निवास- धाम । काया एवी गणीने, मान त्यजीने कर सार्थक आम ॥ विशेषार्थ-हे चैतन्य ! इस कायाको मल और मूत्रकी खानरूप, रोग और वृद्धताके रहनेके धाम जैसी मानकर उसका मिथ्या मान त्याग करके सनत्कुमारकी भाँति उसे सफल कर! इन भगवान सनत्कुमारका चरित्र अशुचिभावनाकी प्रामाणिकता बतानेके लिए यहाँ पर शुरू किया जाता है। सनतकुमार चक्रवर्ती दृष्टांत-जो जो ऋद्धि, सिद्धि और वैभव भरतेश्वरके चरित्रमें वर्णित किये, उन सब वैभवादिसे युक्त सनत्कुमार चक्रवर्ती थे। उनका वर्ण और रूप अनुपम था। एक बार सुधर्मसभामें उस रूपकी स्तुति हुई। किन्हीं दो देवोंको यह बात न रुची। बादमें वे उस शंकाको दूर करनेके लिए विपके रूपमें सनतकुमारके अंतःपुरमें गये। सनत्कुमारकी देहमें उस समय उबटन लगा हुआ था; उसके अंगोंपर मर्दनादिक पदार्थोंका मात्र विलेपन था। एक छोटी अङ्गोछी पहनी हुई थी। और वे स्नानमज्जन करनेके लिए बैठे थे। विप्रके रूपमें आये हुए देवता उनका मनोहर मुख, कंचनवर्णी काया और चन्द्र जैसी कान्ति देखकर बहुत आनन्दित हुए और जरा सिर हिलाया। इसपर चक्रवर्तीने पूछा, “आपने सिर क्यों हिलाया ?" देवोंने कहा, "हम आपके रूप और वर्णका निरीक्षण करनेके लिए बहुत अभिलाषी थे। हमने जगह-जगह आपके वर्ण, रूपकी स्तुति सुनी थी; आज वह बात हमें प्रमाणित हुई, अतः हमें आनन्द हुआ, और सिर इसलिए हिलाया कि जैसा लोगोंमें कहा जाता है वैसा ही आपका रूप है। उससे अधिक है परन्तु कम नहीं।" सनत्कुमार स्वरूप-वर्णकी स्तुतिसे गर्वमें आकर बोले, “आपने इस समय मेरा रूप देखा सो ठीक है, परन्तु मैं जब राजसभामें वस्त्रालंकार धारण करके सर्वथा सज्ज होकर सिंहासनपर बैठता हूँ, तब मेरा रूप और मेरा वर्ण देखने योग्य है, अभी तो मैं शरीरमें उबटन लगाकर बैठा हूँ। यदि उस समय आप मेरा रूप वर्ण देखेंगे तो अद्भुत चमत्कारको प्राप्त होंगे और चकित हो जायेंगे।" देवोंने कहा, "तो फिर हम राजसभामें आयेंगे,” यों कहकर वे वहाँसे चले गये। तत्पश्चात् सनत्कुमारने उत्तम और अमूल्य वस्त्रालंकार धारण किये। अनेक प्रसाधनोंसे १९
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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