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________________ राजाधिराज भरतेश्वर आँसू टपकते थे; जिससे कोई शत्रुता दिखानेके लिए तो समर्थ न था, परन्तु जिसकी ओर निर्दोषतासे उँगली उठानेमें भी कोई समर्थ न था; जिसके समक्ष अनेक मन्त्रियोंका समुदाय उसकी कृपाकी याचना करता था जिसके रूप, कांति और सौंदर्य मनोहारी थे; जिसके अंगमें महान बल, वीर्य, शक्ति और उग्र पराक्रम उछल रहे थे जिसके क्रीडा करनेके लिये महासुगन्धीमय बाग-बगीचे और वनोपवन थे; जिसके यहाँ प्रधान कुलदीपक पुत्रोंका समुदाय था; जिसकी सेवामें लाखों अनुचर सज्ज होकर खडे रहते थे; वह पुरुष जहाँ जहाँ जाता था; वहाँ-वहाँ खमा - खमाके उद्गारोंसे, कंचनके फूलोंसे और मोतियोंके थालोंसे उसका स्वागत होता था; जिसके कंकुमवर्णी पादपंकजका स्पर्श करनेके लिए इन्द्र जैसे भी तरसते रहते थे; जिसकी आयुधशालामें महायशस्वी दिव्य चक्रकी उत्पत्ति हुई थी जिसके यहाँ साम्राज्यका अखंड दीपक प्रकाशमान था; जिसके सिरपर महान छ खंडकी प्रभुताका तेजस्वी और प्रकाशमान मुकुट सुशोभित था कहनेका आशय यह है कि जिसके दलकी, जिसके नगर - पुरपट्टनकी, जिसके वैभवकी और जिसके विलासकी संसारकी दृष्टिसे किसी भी प्रकारकी न्यूनता न थी, ऐसा वह श्रीमान राजराजेश्वर भरत अपने सुंदर आदर्शभुवनमें वस्त्राभूषणोंसे विभूषित होकर मनोहर सिंहासनपर बैठा था । चारों ओरके द्वार खुले थे; नाना प्रकारके धूपोंका धूम्र सूक्ष्म ति फैल रहा था, नाना प्रकारके सुगंधी पदार्थ खूब महक रहे थे; नाना प्रकारके सुस्वरयुक्त बाजे यांत्रिक कलासे बज रहे थे; शीतल, मंद और सुगंधी यों त्रिविध वायुकी लहरें उठ रही थीं; आभूषण आदि पदार्थोंका निरीक्षण करते-करते वह श्रीमान राजराजेश्वर भरत उस भुवनमें अपूर्वताको प्राप्त हुआ । उसके हाथकी एक उँगलीमेंसे अंगूठी निकल पडी भरतका ध्यान उस ओर आकृष्ट हुआ और उँगली सर्वथा शोभाहीन दिखाई दी। नौ उँगलियाँ अंगूठियोंसे जो मनोहरता रखती थीं उस मनोहरतासे रहित इस उँगलीको देखकर भरतेश्वरको अद्भुत मूलभूत विचारकी प्रेरणा हुई। किस कारणसे यह उँगली ऐसी लगती है? यह विचार करनेपर उसे मालूम हुआ कि इसका कारण अंगूठीका निकल जाना है। इस बातको विशेष प्रमाणित करनेके लिए उसने दूस उँगलीकी अंगूठी खींच निकाली। ज्यों ही दूसरी उँगलीमेंसे अंगूठी निकली त्यों ही वह उँगली भी शोभाहीन दिखायी दी; फिर इस बातको सिद्ध करनेके लिए उसने तीसरी उँगलीमेंसे भी अंगूठी सरकाली, इससे यह बात और अधिक प्रमाणित हुई। फिर चोथी उँगलीमेंसे अंगूठी निकाल ली, जिससे यह भी वैसी ही दिखाई दी। इस प्रकार अनुक्रमसे दसों उँगलियाँ खाली कर डाली; खाली हो जानेसे सभीका देखाव शोभाहीन मालूम हुआ। शोभाहीन दीखनेसे राजराजेश्वर अन्यत्वभावनासे गद्गद होकर इस प्रकार बोला “ अहोहो ! कैसी विचित्रता है कि भूमिमें उत्पन्न हुई वस्तुको पीटकर कुशलतासे घडनेसे मुद्रिका बनी इस मुद्रिकासे मेरी उँगली सुन्दर दिखायी दी इस उँगलीमेंसे मुद्रिका निकल पड़ने से विपरीत दृश्य नजर आया; विपरीत दृश्यसे उँगलीकी शोभाहीनता और बेहूदापन खेदका कारण १५
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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