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________________ नमिराजर्षि नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) कामभोग शल्य सरीखे हैं, कामभोग विष सरीखे हैं, कामभोग सर्पके तुल्य हैं, जिनकी इच्छा करनेसे जीव नरकादिक अधोगतिमें जाता है; तथा क्रोध एवं मानके कारण दुर्गति होती हैं; मायाके कारण सद्गतिका विनाश होता है; लोभसे इस लोक व परलोकका भय होता है। इसलिए हे विप्र ! इसका तू मुझे बोध न दे। मेरा हृदय कभी भी विचलित होनेवाला नहीं हैं। इस मिथ्या मोहिनीमें अभिरुचि रखनेवाला नहीं है। जान-बूझ कर जहर कौन पिये? जान-बूझकर दीपक लेकर कुएँमें कौन गिरे? जान-बूझकर विभ्रममें कौन पडे ? मैं अपने अमृत जैसे वैराग्यके मधुर रसको अप्रिय करके इस विषको प्रिय करनेके लिए मिथिलामें आनेवाला नहीं हूँ। महर्षि नमिराजकी सुदृढता देखकर शक्रंद्रको परमानंद हुआ, फिर ब्राह्मणके रूपको छोडकर इन्द्रका रूप धारण किया। वंदन करनेके बाद मधुर वाणीसे वह राजर्षीश्वरकी स्तुति करने लगा-“हे महायशस्विन् ! बडा आश्चर्य है कि तूने क्रोधको जीता। आश्चर्य, तूने अहंकारका पराजय किया। आश्चर्य, तूने मायाको दूर किया। आश्चर्य, तूने लोभको वशमें किया। आश्चर्य, तेरी सरलता। आश्चर्य, तेरा निर्ममत्व । आश्चर्य, तेरी प्रधान क्षमा । आश्चर्य, तेरी निर्लोभता । हे पूज्य ! तू इस भवमें उत्तम है, और परभवमें उत्तम होगा । तू कर्मरहित होकर प्रधान सिद्धगतिमें जायेगा।" इस प्रकार स्तुति करते-करते प्रदक्षिणा देते-देते श्रद्धाभक्तिसे उस ऋषिके पादांबुजको वंदन किया। तदनंतर वह सुंदर मुकुटवाला शक्रंद्र आकाशमार्गसे चला गया। प्रमाणशिक्षा-विप्ररूपमें नमिराजके वैराग्यको परखनेमें इंद्रने क्या न्यूनता की है ? कुछ भी नहीं की। संसारकी जो-जो लोलुपताएँ मनुष्यको विचलित करनेवाली हैं, उन-उन लोलुपताओं संबंधी महागौरवसे प्रश्न करनेमें उस पुरंदरने निर्मल भावसे स्तुतिपात्र चातुर्य चलाया है। फिर भी निरीक्षण तो यह करना है कि नमिराज सर्वथा कंचनमय रहे हैं। शुद्ध एवं अखंड वैराग्यके वेगमें अपने बहनेको उन्होंने उत्तरमें प्रदर्शित किया है-“हे विप्र ! तू जिन-जिन वस्तुओंको मेरी कहलवाता है के वे वस्तुएँ मेरी नहीं हैं। मैं एक ही हूँ, अकेला जानेवाला हूँ और मात्र प्रशंसनीय एकत्वको ही चाहता हूँ।" ऐसे रहस्यमें नमिराज अपने उत्तर और वैराग्यको दृढीभूत करते गये हैं। ऐसी परम प्रमाणशिक्षासे भरा हुआ उन महर्षिका चरित्र है । दोनों महात्माओंका पारस्परिक संवाद शुद्ध एकत्वको सिद्ध करनेके लिए तथा अन्य वस्तुओंका त्याग करनेके उपदेशके लिए यहाँ दर्शित किया है। इसे भी विशेष दृढीभूत करनेके लिए नमिराजने एकत्व कैसे प्राप्त किया, इस विषयमें नमिराजके एकत्व-संबंधको किंचित् मात्र प्रस्तुत करते हैं। नमिराजर्षिका दृष्टांत वे विदेह देश जैसे महान राज्यके अधिपति थे। अनेक यौवनवती मनोहारिणी स्त्रियोंके समुदायसे घिरे हुए थे। दर्शन-मोहनीयका उदय न होनेपर भी वे संसारलुब्धरूप दिखायी देते थे। किसी समय उनके शरीरमें दाहज्वर नामके रोगकी उत्पत्ति हुई। सारा शरीर मानो प्रज्वलित हो ११
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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