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________________ पाठ६ प्राकृत भाषा की शब्दसम्पत्ति प्रस्तावना : हमारे भारत देश में प्राचीन काल से संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएँ प्रचलित थी । संस्कृत भाषा प्रमुखता से ज्ञान की भाषा एवं उच्चवर्णियों के व्यवहार की भाषा होती थी । संस्कृत में भी भाषा के दो स्तर दिखाई देते हैं । ऋग्वेद आदि वेदों में प्रयुक्त संस्कृत को 'वैदिक संस्कृत' कहते है । संस्कृत के सभी अभिजात (classical) महाकाव्य, नाटक आदि जिस संस्कृत भाषा में लिखे हैं उस भाषा को लौकिक संस्कृत' कहते हैं। जिस समय संस्कृत भाषा प्रचलित थी, उसी समय आम समाज में प्रदेश एवं व्यवसायों के अनुसार बोलचाल की भाषाएँ प्रचलित थी । भारत एक विशालकाय देश होने के नाते इन बोलचाल की भाषाओं में विविधता थी । इन सभी भाषाओं के समूह को मिलकर भाषाविदों ने 'प्राकृत' नाम दिया । इसका मतलब 'प्राकृत' यह संज्ञा किसी एक भाषा की नहीं है । प्रकृति याने स्वभाव को प्राधान्य देनेवाली अनेक बोलीभाषाएँ प्राकृत में समाविष्ट हैं। मगध याने बिहार के आसपास के प्रदेश में प्रचलित जो प्राचीन भाषा थी उसका नाम था 'मागधी' । भ. महावीर द्वारा प्रयुक्त 'अर्धमागधी' और भ. बुद्ध द्वारा प्रयुक्त ‘पालि' ये दोनों भाषाएँ मागधी भाषा के दो उपप्रकार हैं । जैन संघ में जब श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय उद्भूत हुए तब श्वेताम्बर आचार्यों ने 'महाराष्ट्री' नामक भाषा का आश्रय लेकर ग्रन्थरचना की। उनकी महाराष्ट्री, अर्धमागधी से प्रभावित होने के कारण 'जैन महाराष्ट्री' नाम से विख्यात हुई । दिगम्बर आचार्यों ने उनके ग्रन्थ लेखन के लिए 'शौरसेनी' नामक भाषा का प्रयोग किया । सामान्य शौरसेनी से थोडी अलग होने के कारण अभ्यासकों ने इस भाषा का नामकरण 'जैन शौरसेनी' किया । लगभग दसवीं सदी के आसपास सभी प्राकृत भाषाओं में एक बदलाव आया । उस भाषा समूह को 'अपभ्रंश' भाषा कहा जाने लगा । लगभग पंद्रहवीं सदी के आसपास हमारी आधुनिक प्राकृत बोलीभाषाएँ प्रचार में आने लगी । अपभ्रंश भाषाओं से ही इनकी निर्मिति हई । आज भी हम हिंदी, मराठी, मारवाडी, गुजराती, राजस्थानी, बांगला आदि भाषाएँ बोलते हैं, वे आधुनिक प्राकृत भाषाएँ ही हैं । उपरोक्त सभी याने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाएँ ‘आर्य भारतीय' भाषाएँ हैं । इसके अलावा भारत के दक्षिणी भाग में बोली जानेवाली कानडी, तेलगू, तमीळ और मल्याळम ये चार मुख्य भाषाएँ एवं उनकी उपभाषाएँ 'द्राविडी' नाम से जानी जाती हैं । भारत के कई दुर्गम प्रदेशों में जो आदिवासी भाषाएँ बोली जाती हैं उनकी शब्दसम्पत्ति (vocabulary) तथा व्याकरण (grammar) आर्य एवं द्राविडी भाषाओं से अलग प्रकार का है। भारत वर्ष की समग्र भाषाओं का स्थूल स्वरूप इस प्रकार विविधतापूर्ण है। प्राकृत के शब्दसम्पत्ति का वर्गीकरण : प्राकृत भाषा की शब्दसम्पत्ति का वर्गीकरण 'तत्सम शब्द', 'तद्भव शब्द' और 'देश्य शब्द' इस प्रकार से किया जाता है । तत् (तद्) - इस शब्द का अर्थ है - संस्कृत के समान । जो शब्द पूर्णत: संस्कृत के समान हैं उन्हें 'तत्सम' कहते हैं । जो शब्द संस्कृत शब्द से कुछ अंश में समान हैं और कुछ अंश में समान नहीं हैं उन्हें 'तद्भव' कहते हैं । 'देशी' या 'देश्य' शब्द वे होते हैं जिनका संबंध संस्कृत शब्दों से बिलकुल ही नहीं होता । वे शब्द बोलचाल के नित्य व्यवहार में प्रचलित होते हैं लेकिन संस्कृत के साथ किसी भी प्रकार मेल नहीं खाते । सभी प्रकार की प्राकृत भाषाओं में तत्सम, तद्भव और देश्य ये तीनों प्रकार के शब्द पाये जाते हैं।
SR No.009956
Book TitleJainology Parichaya 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2013
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size304 KB
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