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________________ ९) इन्द्रियमनसोर्नियमानुष्ठानं तपः । अर्थ : इन्द्रियाँ और मन के द्वारा नियम का अनुष्ठान करना तप है। भावार्थ : 'धर्म' शब्द की तरह ‘तप' शब्द की व्याख्या भी, विविध भारतीय सम्प्रदायों में अन्यान्य प्रकार से दी है। सोमदेव ने तप की एक बहुत ही संक्षिप्त और अर्थपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की है । इन्द्रियों की अपने-अपने विषयों के प्रति जाने की लालसा अपार है । मन में निहित अन्यान्य इच्छा-आकांक्षाएँ भी असंख्य है । इन दोनों को नियंत्रण में रखने का अनुष्ठान जो करता है वह तपाचरण ही करता है । १०) विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः । अर्थ : 'नियम' शब्द का मतलब क्या है ? विहित क्रियाओं का आचरण और निषिद्ध क्रियाओं का परिवर्जन 'नियम' कहलाता है । भावार्थ : नियम शब्द की एक बहुत ही धर्म-सम्प्रदाय निरपेक्ष सामान्य परिभाषा इस सूत्र में दी है । हरएक सम्प्रदाय के अन्यान्य विधिनिषेध होते हैं । उसके प्रति श्रद्धावान व्यक्ति ने, तदनुरूप विधिनिषेधों का पालन करना 'नियम' है । लेकिन नियम का मतलब सोमदेव के अनुसार इन्द्रिय और मन का नियन्त्रण है, उसे ही 'तप' कहा है। ११) प्रत्यहं किमपि नियमेन प्रयच्छतस्तपस्यतो वा भवन्त्यवश्यं महीयांस: परे लोकाः । अर्थ : प्रतिदिन नियम के अनुसार कुछ न कुछ देते रहने से और तपस्या करने के उस व्यक्ति को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ परलोकी की प्राप्ति अवश्य होती है। भावार्थ : इस सूत्र से स्पष्ट है कि सोमदेव प्रासंगिक दान और प्रासंगिक तप को महत्त्व नहीं देते । कुछ न कुछ दान करना और इन्द्रिय-मन नियन्त्रित रखना, यह व्यक्ति के दैनन्दिन जीवनशैली का एक भाग होना चाहिए । अर्थात् दान, सत्पात्र हो और तप से मन पर काबू रखने की शक्ति आ जाय, इन दो बातों को कदापि नजरन्दाज नहीं करना चाहिए । इसी दैनन्दिन धर्माचरण से वह परलोक में श्रेष्ठ जीवन जी सकता है । १२) धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं लवोऽपि संग्रह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिकः । अर्थ : धर्माचरण, आगमश्रवण और धन इनका थोडा-थोडा संग्रह अगर हररोज किया जाय तो वह समुद्र से भी अधिक होता है। भावार्थ : प्रस्तुत सूत्र पिछले सूत्र का ही अर्थविस्तार है । यद्यपि अपरिग्रह वांछनीय है तथापि शुभ आचरणरूप धर्म, नित्य धर्मग्रन्थो का स्वाध्याय और साथ में ही प्रतिदिन थोडा-थोडा अर्थसग्रह, सामान्य गृहस्थ के लिए, अन्ततक सुखपूर्वक आयु जीने का, अच्छा तरीका है । इस सूत्र में भी धर्म और श्रवण की पंक्ति में ही, धन याने अर्थ को भी समान स्थान दिया है। १३) अधर्मकर्मणि को नाम नोपाध्यायः पुरश्चारी वा । अर्थ : अधार्मिक अर्थात् पापकर्मों को प्रेरणा देनेवाले उपाध्याय अर्थात् उपदेश दाता और स्वयं पापकर्मों में अग्रेसर होनेवाले लोगों की इस दुनिया में क्या कमी है ? भावार्थ : प्रश्नवाचक शैली सोमदेव की विशेषता है । उपदेश देने की शैली न अपनाकर वे वाचक को प्रश्न पूछकर ही अन्तर्मुख कराते हैं । सोमदेव का तात्पर्य इतना ही है कि खुद पापकर्म करनेवाले और दूसरों को पापमार्गपर आकृष्ट करनेवालों की कमी इस दुनियाँ में बिलकुल ही नहीं है । दुख की बात यह है कि सदाचरण के उपदेश से दुराचरण का उपदेश हमेशा ही अधिक लुभावना और आकर्षक होता है । सोमदेव चाहते हैं कि अर्थसंचय करते हए भी कदापि अवांछनीय मार्ग का स्वीकार न करें । 25
SR No.009956
Book TitleJainology Parichaya 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2013
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size304 KB
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