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________________ देवों के कुल चार निकाय याने समूहविशेष है । वे इस प्रकार हैं - १) भवनपति २) व्यन्तर ३) ज्योतिष्क और ४) वैमानिक । भवनपति देव दस प्रकार के हैं । व्यन्तर आठ प्रकार के हैं । ज्योतिष्क पाँच प्रकार के और वैमानिक बारह प्रकार के हैं । प्रत्येक प्रकार का नाम और कार्यसहित वर्णन सुविस्तृत रूप में, इस अध्याय के अलगअलग सूत्र में दिया है। अन्तिम दो स्वर्गपटल छोडकर बाकी सब में दो-दो इन्द्र होते हैं । इन चारों देवनिकायों में शुभलेश्याएँ होती है । चार निकायों में से वैमानिक देव श्रेष्ठ हैं । उनके दो प्रकार हैं - १) कल्पोपपन्न २) कल्पातीत । इस अध्याय के कछ सत्रों में देवों के वैषयिक सखों का विचार किया गया है। नीचे-नीचे की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देवों का सुख अधिकाधिक माना गया है । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारका आदि सबको ज्योतिष्क देव के स्वरूप में स्वीकारा है। आगे के सूत्रों में देवों का शरीर, अभिमान, उच्छ्वास, आहार, वेदना आदि का वर्णन पाया जाता है । जैन पौराणिक मान्यता के अनुसार, अरिहंत भगवान के जन्माभिषेक आदि प्रसंगो पर देवों का आसन कम्पित होता है । वे अवधिज्ञान से तीर्थंकर की महिमा को जानते हैं । कुछ देव उनके निकट पहँच कर, उपासना के द्वारा आत्मकल्याण करते हैं । सारांश में हम यह कह सकते हैं कि, जैन परम्परा के अनुसार, अरिहंत तीर्थंकर आदि की महिमा देवों से कई गुने ज्यादा है । इस अध्याय में तिर्यंचों का वर्णन केवल एक सूत्र में किया है । देव-नारक तथा मनुष्य को छोडकर, शेष सभी संसारी जीव तिर्यंच है। देव-नारक और मनुष्य केवल पंचेन्द्रिय होते है । तिर्यंच में एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक सब जीव आ जाते हैं । देव-नारक और मनुष्य, लोक के विशिष्ट भागों में ही होते हैं। तिर्यंच लोक के सब भागों में हैं। अध्याय के अन्तिम भाग में, चतुर्निकाय देवों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बतायी है । अध्याय ५ : जीव दूसरे अध्याय से चौथे अध्याय तक, जीवतत्त्व का वर्णन हुआ । प्रस्तुत अध्याय में अजीवतत्त्व का विचार किया गया है। जीव का लक्षण 'उपयोग' है । जिसमें उपयोग अर्थात् ज्ञानचेतना न हो वह ‘अजीव' है । जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ये पाँच ‘अस्तिकाय' हैं । इनको अस्तिकाय कहा है क्योंकि ये एकप्रदेशस्वरूप अथवा अवयवरूप नहीं हैं । परन्तु प्रचय अर्थात् समूहरूप है । इन पाँच अस्तिकायों में धर्म-अधर्म-आकाश और पुद्गल ये चार द्रव्य ‘अजीवद्रव्य' हैं । पाँच अस्तिकायों में अगर कालद्रव्य को सम्मीलित किया तो षड्द्रव्य हो जाते हैं । काल ‘अजीव' है किन्तु वह अस्तिकाय नहीं है। छह द्रव्यों में अजीव पुद्गल द्रव्य ‘मूर्त' है । बाकी पाँच द्रव्य ‘अमूर्त' है । सब द्रव्य 'नित्य' है । सब द्रव्यों की स्थिति लोकाकाश में है । क्रम से गति और स्थिति को सहाय करना, धर्म और अधर्म के कार्य हैं । आकाश सबको ‘अवकाश' याने जगह, स्थान देता है । जैनों के सिवा, किसी भी भारतीय तत्त्वज्ञानों ने धर्म और अधर्म द्रव्य की संकल्पना नहीं की है। जगत् के सब जीव एकदूसरे के आधार से जीते हैं । शरीर से सम्बन्धित सारे कार्य पुद्गलों के उपकार है याने कि शरीर, वाणी, मन, उच्छ्वास-निश्वास यह सब पुद्गलों के सिवा शक्य नहीं है। 'काल' वस्तुत: एक अनुमानित द्रव्य है । पदार्थों के परिणाम देखकर, काल का अनुमान किया जाता है । सेकंद, मिनिट, घंटा आदि सब व्यावहारिक दृष्टि से काल के विभाग है । 17
SR No.009956
Book TitleJainology Parichaya 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2013
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size304 KB
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