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________________ (७) अहिंसा प्रस्तावना : हम सब जानते ही है कि अहिंसा और दया केवल जैनधर्म के ही नहीं, जगत् के सभी धर्मों के मूलाधार तत्त्व है । फिर अहिंसाधर्म के तौरपर जैनधर्म की पहचान क्यों होने लगी ? इसका कारण यह है कि हिंसा और अहिंसा का विचार खानपान, आचारव्यवहार सभी दृष्टि से जितना जैनियों ने किया है, उतना शायद किसी धर्म ने नहीं किया है। प्राचीन जैनशास्त्रों में अहिंसा को 'प्राणातिपातविरमण' कहा है । और अन्य महाव्रत भी विरमण के रूप में प्रस्तुतकिये हैं । बाद में वे सब अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि शब्दों में प्रकट किये गये । जैनियों की अहिंसा सूक्ष्म होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि पृथ्वीकायिक आदि पाँच प्रकार के जीवोंको उन्होंने 'एकेंद्रिय जीव' कहा है । पृथ्वी, जल, वायु आदि सजीव होने का जिक्र शायद किसी भी अन्य विचारधरा में नहीं हुआ है । जीवविचार के सूक्ष्मता के कारण ही अहिंसाविचार में भी सूक्ष्मता दिखायी देती है । भावार्थ स्पष्टीकरण : (१) सव्वे जीवा --- दशवैकालिकसूत्र की इस गाथा में बहुत ही सरल शब्दों में अहिंसा का स्वरूप स्पष्ट किया है । पूरे लोक में अनंत जीवों का अस्तित्व पाया जाता है । हर एक जीव की यह सहज प्रेरणा होती है कि वह जीना चाहता है, मरना नहीं चाहता । इस वस्तुस्थिति की ओर निर्देश करके प्रस्तुत गाथा में बताया है कि मेरी जीने की प्रेरणा के साथसाथ अन्य जीवों की जीवित रहने की प्रेरणा का आदर करना चाहिए । इस भावना से ही निपँथ मुनि सभी प्रकार कीहिंसा का त्याग करते हैं। (२) समया सव्वभूएसु --- जगत के सब प्राणिमात्रों के प्रति समभाव, शत्र और मित्रों के प्रति रागद्वेष न रखना एवं सभी प्रकार की (स्थूल और सूक्ष्म) हिंसा से निवृत्त होना - ये तीन चीजें धार्मिक आचरण का सार है । प्रस्तुत गाथा में इस बात पर बल दिया है कि कहने और लिखने में कितना ही आसान हो, यह करने में याने आचरण में बहुत कठिन है । अगर हम निश्चय करे तो अल्पकाल तक इसका पालन कर भी सकते हैं लेकिन इनको व्रत के स्वरूप जीवनपर्यंत निभाना अतीव दुष्कर है। (३) तसे पाणे न हिंसेज्जा --- प्रस्तुत गाथा में विविधता से भरे हुए विश्व का, निरीक्षण करने के लिए कहा है । यह करते समय सभी प्रकारके प्राणिमात्रों की हिंसा के विचार से दूर रहने की अपेक्षा व्यक्त की है। गाथा के प्रथम चरण में त्रस' याने हलन-चलनवाले प्राणियों की हिंसा न करने का निर्देश किया है । पूर्ण अहिंसा की दृष्टि से देखे तो पृथ्वी, जल आदि स्थावरों की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए । लेकिन हमारे जीवन की धारणा के लिए, हमें इच्छा हो या न हो इनकी हिंसा अनिवार्यता से होती है । इसलिए वचन से अथवा कर्म (कया) से त्रसों की हिंसा नहीं करनी चाहिए । स्थावर हो या त्रस सभी जीवों के प्रति मन से याने भाव से पूर्णत: निवृत होना ही यहाँ अपेक्षित है। (४) अजयं चरमाणो --- प्रस्तुत गाथा में अजयं चरमाणो' इस पदावलि का अर्थ ठीक तरह से समझ लेना चाहिए । 'जयणा' शब्द का
SR No.009953
Book TitleJainology Parichaya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2010
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 KB
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