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________________ self), अजीव (non-soul), पुण्य (merit), पाप (sin), आस्रव (inflow ofkarman in soul), संवर (stoppage of karman), निर्जरा (shedding of karman), बंध (bondage), मोक्ष (liberation, salvation) ये नौ पदार्थ (तत्त्व) हैं। नौ तत्त्वों के ऊपर अगर विचारणा करे तो ध्यान में आता है कि जीव और अजीवrealities है और उर्वरित सात तत्त्वों को ethical या spiritual कहा जा सकता है । पुण्य और पाप का समावेश आस्रव या बंध तत्त्व में हम कर सकते हैं । इसलिए तत्त्वों की गणना सात भी की जा सकती है। ऊपर वर्णन किये हुए षड्द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनका यथार्थ स्वरूप जिनदेवों ने कहा है । उसके ऊपर सच्ची श्रद्धा रखनेवाले को 'सम्यकदृष्टी' कहते हैं । (२) कायव्वमिणकायव्वयत्ति --- 'भगवती आराधना' की इस गाथा में ज्ञान और सम्यक्त्व की एकरूपता बतायी है । हमारे जीवन में कई बार क्या करना है और क्या करना नहीं है इसके बारे में संदेह उत्पन्न होता है । ज्ञान के द्वारा समस्या का आकलन ठक तरह से होता है । पक्षपातरहित दृष्टि के द्वारा क्या ग्रहण करना है और क्या छोडना है इसके बारे में प्रत्यक्ष कृति होती है । यद्यपि यहाँ परिहार याने त्याग का निर्देश है तथापि उसीमें उपादेय याने ग्राह्य भी अभिप्रेत है । ज्ञान और सम्यक्त्वसे क्ति प्राप्त होती है उसे हम विवेक भी कह सकते हैं । इस गाथा में जिसे ज्ञान और सम्यक्त्व कहा है, वहविवेक है। (३) लक्खिज्जइ सम्मत्तं --- इस गाथा में पाँच गुणों को सम्यक्त्व के लक्षण या चिह्न कहे हैं । जिस व्यक्ति में ये चिह्न दिखायी देते हैं वह सयक्त्वी है । सम्यक्त्व की पहचान इन पाँच लक्षणों के द्वारा होती है । 'उपशम' का मतलब है भावनाओं का तीव्र उद्रेक न होना । 'संवेग' याने विरक्ति की दिशा से मन का प्रवाह बहना । सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता 'निर्वेद' है । दूसरे के प्रति दयाभाव अनुकंपा है । खुद के याने आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास रखना 'आस्तिक्य' है। (४) निस्संकिय निक्कंखिय --- नि:शंका, नि:कांक्षा आदि आठ गुणों को सम्यक्त्व के अंग क्यों कहा है ? उचित मात्रा में ग्रहण किया हुआ पोषक आहार जिस प्रकार हाथ, पैर आदि अवयवों को निरोगी एवं सुदृढ रखता है उसी प्रकार ठीक तरह से ग्रहण किय हुआ सम्यक्त्व आठ अंगों को पुष्ट करता है । वे आठ अंग इस प्रकार हैं । १) निःशंका : जिनप्रतिपादित द्रव्यों तथा तत्त्वों के बारे में शंकारहित होना, निःशंका है । द्रव्य की संख्या छह ही है या कम-ज्यादा ? सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिन थे या नहीं थे ? पृथ्वीकायिक, अप्कायिक आदि सचमुच चैतन्यमय है या नहीं ? इस प्रकार की शंकाओं से परे होना नि:शंका है । २) नि:कांक्षा :साधनामार्गी बनने पर ऐहिक और पारलौकिक विषयों की अभिलाषा नहीं करना । कांक्षा या अभिलाषा मन में होने पर साधक अपने मार्ग से दूर हो जाते है । सिद्धांत को भी छोड़ देते है । ३) निर्विचिकित्सा : संदेह तक पहुँचानेवाली अतिचिकित्सा टालना, 'निर्विचिकित्सा' है । हर बार मन को आंदोलित करनेवाले विकल्प सामने उपस्थित होने लगे तो किसी एक निर्णय या नतीजे पर हम नहीं पहुँच सकते । ४) अमूढदृष्टि : मूढता याने मोहयुक्त होना । जैनधर्म के तत्त्व और आचार समझने में और पालने में कठिन है । उनमें संयम और त्याग की प्रधानता है । तुलना से अन्यों के तत्त्व और आचारसुलभ एवं आकर्षक है ।इसलिए मोहयुक्त होकर, जिनतत्त्वों को छोडकर, आकर्षक धर्मों के प्रति झुकाव होना, मूढदृष्टि' है । इस प्रकार की दृष्टि से
SR No.009953
Book TitleJainology Parichaya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2010
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 KB
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