SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (85) तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++अध्याय का त्याग और हित- मित वचन बोलना, ये पाँच सत्य व्रत की भावना हैं। आशय यह है कि मनुष्य क्रोध से, लालच से, भय से, और हंसी करने के लिए झूठ बोलता है । अतः इनसे बचते रहना चाहिये और जब बोले तो सावधानी से बोले जिससे कोई बात ऐसी न निकल जाये जो दूसरे को कष्ट कर हो ॥५॥ तीसरे अचौर्य व्रत की भावनाएं कहते हैं शून्यागार - विमोचितावास-परोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादा: पंच ||६|| अर्थ - शून्यागार अर्थात् पर्वत की गुफा, वन और वृक्षों के कोटरों में निवास करना, विमोचितवास अर्थात् दूसरों के छोड़े हुए ऊजड़ स्थान में निवास करना, परोपरोधाकरण अर्थात् जहाँ आप ठहरे वहाँ यदि कोई दूसरा ठहरना चाहे तो उसे रोकना नहीं और जहाँ कोई पहले से ठहरा होतो उसे हटाकर स्वयं ठहरे नहीं, भैक्ष्य शुद्धि अर्थात् शास्त्रोक्त रीति से शुद्ध भिक्षा लेना और सधर्माविसंवाद अर्थात् साधर्मी भाइयों से लड़ाई झगड़ा नहीं करना ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनायें हैं ॥ ६ ॥ इसके बाद ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएँ कहते हैंस्त्रीरागकथाश्रवण- तन्मनोहराङ्गनिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरस - स्वशरीर संस्कारत्यागा: पंच 11611 अर्थ - स्त्रियों के विषय में राग उत्पन्न करने वाली कथा को न सुनना, स्त्रियों के मनोहर अंगों को न ताकना, पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करना, कामोद्दीपन करने वाले रसों का सेवन न करना और अपने शरीर को इत्र तेल वगैरह से न सजाना, ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएँ हैं ॥७॥ अन्त में परिग्रह त्याग व्रत की भावना कहते हैंमनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय-विषय-राग-द्वेष-वर्जनानि पंच ॥ell ++++++ 145 +++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय अर्थ - पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों से राग नहीं करना और अनिष्ट विषयों से द्वेष नहीं करना ये पाँच परिग्रह त्याग व्रत की भावनाएँ हैं ॥८ ॥ जैसे इन व्रतों को दृढ़ करने के लिए भावनाएँ कही हैं वैसे ही इन व्रतों के विरोधी जो हिंसा आदि हैं उनसे विमुख करने के लिए भी भावनाएं कहते हैंहिंसादीष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ||९|| अर्थ - हिंसा आदि पाँच पाप इस लोक और परलोक में विनाशकारी तथा निन्दनीय हैं, ऐसी भावना करनी चाहिये । विशेषार्थ - अर्थात् हिंसा के विषय में विचारना चाहिये कि जो हिंसा करता है, लोग सदा उसके बैरी रहते हैं। इस लोक में उसे फांसी वगैरह होती है और मरकर भी वह नरक आदि में जन्म लेता है अतः हिंसा से बचना ही श्रेष्ठ है। इसी तरह झूठ बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता । इसी लोक में पहले राजा उसकी जीभ कटा लेता था। तथा उसके झूठ बोलने से जिन लोगों को कष्ट पहुँचता है वे भी उसके दुश्मन हो जाते हैं और उसे भरसक कष्ट देते हैं। तथा मरकर वह अशुभगति में जन्म लेता है, अतः झूठ बोलने से बचना ही उत्तम है। इसी तरह चोर का सब तिरस्कार करते हैं । इसी लोकमें उसे राजा की ओर से कठोर दण्ड मिलता है तथा मरकर भी अशुभगति में जाता है। अतः चोरीसे वचना ही उत्तम है । तथा व्यभिचारी मनुष्यका चित्त सदा भ्रान्त रहता है। जैसे जंगली हाथी जाली हथिनी के धोखे में पड़ कर पकड़ा जाता है वैसे ही व्यभिचारी भी जब पकड़ा जाता है तो उसकी पूरी दुर्गति लोग कर डालते हैं। पुराने जमाने में तो एसे आदमी का लिंग ही काट डाला जाता था । आजकल भी उसे कठोर दण्ड मिलता है। मर कर भी वह दुर्गति में जाता है अतः व्यभिचारसे बचना ही हितकर है। तथा जैसे कोई पक्षी माँसका टुकड़ा लिये हो तो अन्य पक्षी उसके पीछे पड़ जाते हैं, वैसे ही परिग्रही मनुष्य के पीछे चोर लगे रहते हैं। उसे धनके कमाने, जोड़ने और ++++146 ++++ **
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy