SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D:IVIPULIB001.PM65 (120) तत्त्वार्थ सूत्र * ******* ## अध्याय :D इसका समाधान करने के लिए आगे के सूत्र कहते हैं तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ||७|| अर्थ-समस्त कर्मों से छूटने के बाद ही जीव लोकके अन्त तक ऊपर को जाता है ॥५॥ अब आर को जाने का कारण बतलाते हैंपूर्वप्रयोगादसत्वाद्धन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६|| अर्थ- पहल के संस्कार से, कर्म के भार से हल्का हो जाने से, कर्म बन्धन के कट जाने से और ऊपर को जाने का स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊपर को ही जाता है ॥६॥ इसमें दृष्टांत देते हैंआविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबुवदेरण्ड बीजवदग्निशिखावच्च |||७|| अर्थ- ऊपर के सूत्र में कहे हुए हेतुओं को और इस सूत्र में कहे गये दृष्टान्तों को क्रम से लगाना चाहिये । जो इस प्रकार है। जैसे कुम्हार हाथ में डन्डा लेकर और उसे चाकपर रखकर घुमाता है तो चाक घूमने लगता है। उसके बाद कुम्हार डंडे को हटा लेता है फिर भी चाक जब तक उसमें पुराना संस्कार रहता है, घूमता है। इसीतरह संसारी जीव मुक्ति की प्राप्ति के लिए बार-बार प्रयत्न करता था कि कब मुक्ति गमन हो । मुक्त हो जाने पर वह भावना और प्रयत्न नहीं रहा । फिर भी पुराने संस्कार वश जीव मुक्ति की ओर गमन करता है। जैसे मिट्टी के भारसे लदी हुई तुम्बी जल में डूबी रहती है। किन्तु मिट्टी का भार दूर होते ही जलके ऊपर आ जाती है। वैसे ही कर्म के भार से लदा हुआ जीव कर्म के वश हो कर संसार में डूबा रहता है। किन्तु ज्यों ही उस भारसे मुक्त होता है तो ऊपर को ही जाता है । जैसे एरण्डके बीज एरण्ड के डोढ़ा में बन्द रहते हैं । जब डोढ़ा (तत्त्वार्थ सूत्र * ** **अध्याय - सूखकर फटता है तो उछल कर ऊपर को ही जाते हैं। वैसे ही मनुष्य आदि भवों में ले जानेवाले गति नाम, जाति नाम आदि समस्त कर्म बन्ध के कट जाने पर आत्मा ऊपरको ही जाता है। जैसे वायुके न होने पर दीपक की लौ ऊपर को ही जाती है वैसे ही मुक्त जीव भी अनेक गतियों में ले जाने वाले कर्मों के अभाव में ऊपर को ही जाता है; क्योंकि जैसे आग का स्वभाव ऊपर को जाने का है वैसे ही जीव का स्वभाव भी ऊर्ध्व गमन ही है ॥७॥ अब प्रश्न यह होता है कि जब जीव का स्वभाव ऊर्ध्व गमन है तो फिर मुक्त जीव लोक के अन्त तक ही क्यों जाता है? आगे क्यों नहीं जाता? इस प्रश्न का समाधान करते हैं धर्मास्तिकायाभावात् ||८|| अर्थ-गतिरूप उपकार करनेवाला धर्मास्तिकाय द्रव्य लोक के अन्त तक ही है, आगे नहीं है । अतः मुक्त जीव लोक के अन्त तक ही जाकर ठहर जाता है, आगे नहीं जाता ॥९॥ अब मुक्त जीवों में परस्पर में भेद व्यवहार का कारण बतलाते हैंक्षेत्र-काल-गति-लिंग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधितज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्पबहुत्वत: साध्या: ||९|| अर्थ-क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक बुद्ध, बोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व, इन बारह अनुयोगों के द्वारा सिद्धों में भेद का विचार करना चाहिये। विशेषार्थ- प्रत्युत्पन्न नय और भूतप्रज्ञापन नयकी विवक्षा से बारह अनुयोगों का विवेचन किया जाता है। जो नय केवल वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है अथवा यथार्थ वस्तुस्वरूप को ग्रहण करता है उसे प्रत्युत्पन्न नय कहते हैं। जैसे ऋजुसूत्रनय या निश्चय नय। और जो नय अतीत पर्याय
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy