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________________ D:\VIPUL\BO01.PM65 (119) तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++++++++अध्याय करके जीव क्षायिक सम्यग्द्दष्टि हो जाता है। उसके बाद क्षपक श्रेणी पर चढ़कर नौवें गुणस्थान में क्रम से १६+८+१+१+६+१+१+१+१=३६ छत्तीस प्रकृतियों को नष्ट करके दसवें गुणस्थान में आ जाता है । वहाँ सूक्ष्म लोभ संज्वलन को नष्ट करके बारहवें गुणस्थान से जा पहुँचता है। बारहवें में ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की ६ और अन्तराय की ५ प्रकृतियों को नष्ट करके केवली हो जाता है । इस तरह उसके ३+७+३६+१+१६=६३ त्रेसठ प्रकृतियों का अभाव हो जाता है जिनमें ४७ घाति कर्मों की और १६ अघाति कर्मों की प्रकृतियाँ हैं शेष ८५ प्रकृतियाँ रहती हैं जिनमें से ७२ प्रकृतियों का विनाश तो अयोग केवल नामक चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में करता है । १३ का विनाश उसी के अन्तिम समय मे करके मुक्त हो जाता है ॥२॥ अब प्रश्न यह है कि पौदगलिक द्रव्य कर्मों का नाश होने से ही मोक्ष होता है या भाव कर्मों के नाश से भी ? इसका उत्तर देते हैं औपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च ||३|| अर्थ- जीव के औपशमिक आदि भाव तथा पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव के अभाव से मोक्ष होता है। आशय यह है कि औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव तो पूरे नष्ट हो जाते हैं और पारिणामिक भावों में से अभव्यत्व भाव तो मोक्ष गामी जीव के पहले से ही नहीं होता, जीवत्व नाम का पारिणामिक भाव मुक्तावस्था में भी रहता है । अतः केवल भव्यत्व का अभाव हो जाता है ॥३॥ क्षायिक भाव शेष रहते हैं सो ही कहते हैंअन्यत्र केवल - सम्यक्त्व-ज्ञान- दर्शनसिद्धत्वेभ्यः ||४|| अर्थ- क्षायिक सम्यक्त्व, केवल ज्ञान, केवल दर्शन और सिद्धत्व को छोड़कर अन्य भावों का मुक्त जीव के अभाव हो जाता है। +++++213 ++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय शंका- यदि मुक्त जीव के ये चार ही क्षायिक भाव शेष रहते हैं तो अनन्तवीर्य, अनन्त सुख आदि भावों का भी अभाव कहलाया ? समाधान- नहीं कहलाया; क्योंकि अनन्त वीर्य आदि भाव अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के अविनाभावी हैं। अर्थात् अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के साथ ही अनन्त वीर्य होता है। जहाँ अनन्त वीर्य नहीं होता वहाँ अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन भी नहीं होते। रहा अनन्त सुख, सो वह अनन्त ज्ञानमय ही है; क्योंकि बिना ज्ञान के सुख का अनुभव नहीं होता । शंकर - मुक्त जीवों का कोई आकार नहीं है अतः उनका अभाव ही समझना चाहिये; क्योंकि जिस वस्तु का आकार नहीं वह वस्तु नहीं? समाधान- जिस शरीर से जीव मुक्त होता है उस शरीर का जैसा आकार होता है वैसा ही मुक्त जीव का आकार रहता है। शंका- यदि जीव का आकार शरीर के अनुसार ही होता है तो शरीरका अभाव हो जाने पर जीव को समस्त लोकाकाश में फैल जाना चाहिये; क्योंकि उसका स्वाभाविक परिणाम तो लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर बतलाया है ? समाधान- यह आपत्ति ठीक नहीं है; क्योंकि आत्मा के प्रदेशों में संकोच और विस्तार का कारण नामकर्म था। नामकर्म के कारण जैसा शरीर मिलता था उसीके अनुसार आत्म प्रदेशों में संकोच और विस्तार होता था मुक्त होने पर नाम कर्म का अभाव हो जाने से संकोच और विस्तार का भी अभाव हो गया ||४|| शंका - यदि कारण का अभाव होने से मुक्त जीव में संकोच विस्तार नहीं होता तो गमन का भी कोई कारण होने से; जैसे मुक्त जीव नीचे को नहीं जाता या तिरछा नहीं जाता वैसे ही ऊपर को भी उसे नहीं जाना चाहिये, बल्कि जहाँ मुक्त हुआ है वहीं सदा उसे रहना चाहिये ? 小小 ++++++ +++214++++
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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