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________________ सर्व-विशुद्धज्ञानाधिकार (७७) २१८ - जैसे कि लोक में देखा जाता है कि चांदनी छिटकती है, किन्तु चांदनीकी भूमि नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञान ज्ञयको जानता है यह ज्ञानके स्वभावका उदय है इससे कहीं ज्ञानका ज्ञ ेय या ज्ञयका ज्ञान वन जाय सो नहीं हो सकता । इससे यह शिक्षा लेना चाहिये कि अन्य द्रव्यों की ओर आकृष्ट होकर निज तत्त्वके उपयोगंसे क्यों च्युत हुआ नाय तथा यही भावना करना चाहिये कि ज्ञान तो ज्ञान ही रहे व ज्ञ ेय ज्ञ ेय ही रहे, क्योंकि जब तक ज्ञान ज्ञ ेयकी स्वतन्त्रताके भानरूप ज्ञानभानुका उदय नहीं होता तब तक राग द्वेषकी वृत्ति चलती है । २१६ - आत्माका दर्शन, ज्ञान, चारित्र श्रात्मामें ही है न तो विषयों में है, न शरी में है और न कर्मोंमें है, अतः इस अचेतन पदार्थोंके संग्रह विग्रहसे श्रात्माका सुधार विगाड़ नहीं होता, फिर क्यों अन्य पदार्थों की ओर आकर्षण हो । यदि आत्माका गुण इन अचेतनों में होता तो इन अचेतनोंके घातसे आत्माका अथवा दर्शन ज्ञान चारित्रका घात हो जाता व दर्शन ज्ञान चारित्र घात होनेपर पुद्गल द्रव्यका घात हो जाता । किन्तु, ऐसा है तो नहीं। इससे यह सिद्ध है कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र अचेतनोंमें नहीं है । जैसे कि दीपक दीपघट में नहीं है । यदि दीपक दीपघट में होता तो दीपके बुझ जानेपर दीपघट फूट जाता व दीपघटके दरकने पर दीपक दरक जाता । किन्तु, ऐसा हैं तो नहीं। इससे यह सिद्ध है कि दीप दीपघट में नहीं है । इसी प्रकार राग द्वेप भी जो कि चारित्र गुणके विकार हैं, अचेतन पदार्थों में नहीं पाये जाते हैं। साथ ही यह भी वात है कि राग द्वेष सम्यग्दृष्टि (या सम्यक्त्व परिणमनके) होते नहीं हैं, तो इस प्रकार यही प्रतीत हुआ कि सम्यग्दृष्टिके राग द्वेष नहीं होते । 1 २२० -- राग द्वेपादिकों को कर्म अथवा आश्रयभूत अन्य पदार्थ उत्पन्न कर ही नहीं सकते । क्योंकि, यद्यपि राग द्वेषादि आत्माके स्वभाव नहीं सो स्वयं नहीं होते तथापि कर्मदशाका निमित्त पाकर आत्मा ही का तो विकार बनता है सो जीवके हुआ करते । कर्मोदयं तो निमित्त मात्र है | सभी द्रव्य अपनी अपनी शक्तियोके परिणमनसे उत्पन्न होते हैं ।
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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