SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६२ ) समयसार दृष्टान्तमम सातावेदनीय कोई उसे दे नहीं सकता, यही दुःखकी बात है । असातावेदनीय भी कोई अन्यको दे नहीं सकता । १८० - चाहे कोई जीव परके प्रति पाप परिणाम करे या कोई पुण्य परिणाम करे उससे परका परिणमन हो नहीं जाना, केवल वे परिणाम पाप या पुण्यबन्धके कारण होते हैं । बन्धका कारण अध्यवसाय भाव (मोह, राग, द्वेषादि) है, बाह्य वस्तु बन्धका कारण नहीं है। हां बन्धके कारणभूत रागादि परिणामका आश्रयभूत बाह्य वस्तु होता है । चरणानुयोगमें जो वाह्य वस्तुका त्याग बताया गया है वह रागके श्राश्रयभूत पदार्थ से दूर रहनेको बताया जिससे रागके आविर्भाव की सुगमता न रहे, क्योंकि बाह्य वस्तुके प्राश्रय विना अध्यवसाय भाव उत्पन्न नहीं होता । जैसे कि युद्ध में यह तो भाव हो सकता है कि मैं वीरजननीके पुत्रका घात करूं, किन्तु यह भाव नहीं हो सकता कि 'मैं बन्ध्या के पुत्रका घात करू । तात्पर्य यह है कि रागादिक वाह्य वस्तुके आश्रय बिना नहीं होते, अतः वाह्य वस्तुका प्रतिपेध कराया जाता है । १८१ -- कभी ऐसा भी होता है बन्धके कारणका आश्रयभूत जैसी बाह्य वात होती है वह वाह्य बात भी हो जाय तो भी वन्ध नहीं होता इससे और भी सुसिद्ध बात हुई कि वाह्य वस्तु वन्धका कारण नहीं है। जैसे कोई मुनिराज ईर्या समितिसे बिहार कर रहे हैं, उस समय पद तल अचानक कोई सूक्ष्म जीव उड़कर या किसी तरह मर जावे तो उन मुनिराजको उस हिंसाका बन्ध नहीं होता है। इस कारण जीवके परिणाम अध्यवसानरूप न हो तो वाह्य वस्तु बन्धके हेतुका हेतु भी नहीं होता । १८२ -- "मैं अन्य जीवको दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ” यह व अध्यवसान मिथ्या है क्योंकि किसी जीवने परिणाम तो किया कि मैं मुकको दुःखी करता हूं और उस अमुक साताका उदय नहीं है तो वह दुःखी तो नहीं होता । तथा, किसी जीवने परिणाम किया कि अमुकको सुःखी करता हूँ और उस अमुकके साखाका उदय नहीं है तो
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy