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________________ (३२) सहजानन्दशास्त्रमालायां है। वास्तवमें ककर्मभाव एक ही पदार्थमें प्रतीतिवश सिद्ध होता है। -जैसे दर्पण निमित्त सन्निधि मिटने पर अपने स्वच्छता रूप है और निमित्त मिलने पर फिर दर्पण प्रतिविम्ब रूपसे परिणम नाता है, ऐसा जीवमें मूलसे नहीं है। याने जीव एक वार विलकुल स्वच्छ परिणमनसे परिणम कर पुनः विभावरूप नहीं परिणमता। हाँ नब तक विभान पर्याय योग्यता है, तब तक यह होता है कि क्रोध प्रकृति निमित्त न होनेपर क्रोधरूप न परिणमा किसी अन्यरूप परिगामा और क्रोध प्रकृति निमित्त मिलने पर फिर क्रोध प्रतिविम्वरूप परिणम गया। E-प्रश्न-चैतन्य परिणाममें मिथ्यादर्शनादि विकार कैसे हो गया ? उत्तर-प्रत्येक वस्तुमें यह स्वभाव पड़ा है कि उसमें जितनी शक्तियाँ हैं, उन सब शक्तियोंरूप परिणम सके । जीवमे भी यही बात है। जीवकी अनन्त शक्तियोमे एक शक्ति वैभाविकी भी है और अनादिकालसे जीवके साथ अन्य पदार्थ कर्म भी साथ है, अतः मिथ्यात्व, क्रोध आदि नामक कर्मप्रकृतियों के उदय काल में यह मलिन जीव भी मिथ्यात्व, क्रोध आदि विकार रूप परिणम जाता है। जैसे स्फटिकमें अन्य योग्य पदार्थको निमित्त पाकर उस अनुरूप रूपसे परिणमनेकी शक्ति है, सो पीला, हरा आदि रूप सुवर्ण, पत्ता आदिके आश्रय सहित होनेपर स्फटिकमें भी हरा, पीला श्रादि विकार हो जाता है। ६०-ऐसा होनेपर भी कहीं अन्य पदार्थ अन्य पदार्थके परिणाम का कर्ता नहीं हो जाता । जैसे पत्ताकी डाक होनेपर भी स्फटिकमें नो हरी छायामें रूप है उसका कर्ता हाक नहीं, क्योंकि वह परिणमन स्फटिककी अर्थनियासे है, पत्ताकी अर्थक्रियासे नहीं। इसी प्रकार फर्मोदय होनेपर जीवमें जो मिथ्यात्व, क्रोध आदि विभाव है, उसका कर्ता कर्म नहीं है, क्योंकि वह परिणमन जीवकी अर्थक्रिया है, कर्मकी अर्थक्रियासे नहीं। ____६१-जिज्ञासा-मालूम तो ऐसा होता है कि जीवमें क्रोध आदि विकार नहीं है, कर्मके हैं अथवा किसीके नहीं हैं, केवल भ्रमवश ऐसा मालूम पड़ता है कि जीवके हैं, जैसे कि स्वच्छ सफेद स्फटिक हरा नहीं
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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