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________________ अथ कर्तृकर्माधिकारः (३१) मयूरप्रतिविम्ब दर्पणकी स्वच्छताका विकार मात्र है । वह तो दर्पण है, दर्पणकी ही अध्रुव, औपाधिक परिणति है और मयूर मयूर ही है, उसका परिणमन मात्र मयूर में ही है। मयूरका न तो दर्पण या दर्पण परिणमन है और दर्पणका न मयूर या मयूर परिणमन है। इसी प्रकार जीव है, उसमें रागद्वेषादि विभावरूपसे परिणमनेकी शक्ति है, सो इस योग्य पर्याय शक्ति वाला जीव रागप्रकृतिक द्वेषप्रकृतिक कर्मक उदयको निमित्तमात्र पाता है, तब राग द्वेपादि विभावरूपसे परिणम जाता है। जो यह विभाव परिणमन है, वह चैतन्यका विकारमात्र है, वह तो जीव है, जीवकी ही अध्रुव, औपाधिक परिणति है और कर्म अजीव (पुद्गल) ही है, उसका परिणमन मात्र उस कार्माणवर्गणामें ही है । जीवका न तो कार्माणवर्गणा या कर्म परिणमन है और कर्मका न नीव या जीव परिणमन है। ई-जैसे दर्पण प्रतिविम्बके प्रसङ्गमें मयूरको तो मयूर कहते ही हैं, मयूर प्रतिविम्वको भी मयूर कहते हैं, सो वह तो मयूर मयूर है, यह दर्पणमयूर है, इसी तरह मिथ्यात्व क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप मोह रागद्वेषादि परिणमनके प्रसङ्गमे जीव परिणमनके नाम भी मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हैं और जिन कर्म प्रकृतियोंको निमित्त पाकर वह राग द्वेप आदि हुआ, उन कर्मप्रकृतियों के नाम भी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हैं । सो कर्म क्रोध है, वह तो अजीव क्रोध आदि है और जो जीव परिणमनमें क्रोध आदि है वह जीव क्रोध आदि है। ये दोनों पृथक् पृथक् हैं, इनमें वर्तकर्मभाव नहीं है। ८७-जैसे जो दर्पणमयूर है वह चलने फिरने खाने वाले तिर्यश्च मयूरसे जुदा ही है और यह तिर्थञ्च मयूर दर्पणमयूरसे जुदा ही है, इसी प्रकार मिथ्यात्व, राग, द्वेष, आदि जो विभाव है वह मूर्त पुद्गल कर्म परिणामसे जुदा ही है और जो मोह, क्रोध आदि नामक पुद्गल कर्म है, वह अमूर्त चैतन्य परिणामसे जुदा ही है। इनमेंसे कोई किसी अन्यके स्वरूपमें प्रविष्ट नहीं है । फिर कर्तकर्मभाव इनमें परस्पर कैसे हो सकता
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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