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________________ ५६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । दिया ले वह अनीश्वर अनीशार्थ दोष है ( नोट- जो देना चाहे वह प्रेक्षापूर्वकारी व जो देना न चाहे वह अप्रेक्षा पूर्वकारी ऐसा भाव झलकता है ) अथवा दूसरा अर्थ है कि दानका स्वामी प्रगट हो या अप्रगट हो उस दानको रखवाले मना करे सो देवे व साधु लेवे सो व्यक्त अव्यक्त ईश्वर नाम अनीशार्थ दोष है, तथा जिसका कोई स्वामी नहीं ऐसे दानको कोई व्यक्त अव्यक्त रूपसे या किसीके मना करनेपर देवे सो व्यक्ताव्यक्त अनीश्वर अनीशार्थ दोप है । तथा एक देवे दूसरा मना करे सो संघाटक नाम अनीशार्थ दोप है । इसका भाव यह है जहां दाता प्रधान न हो उस भोजनको लेना वह अनीशार्थ दोष है (विशेष मूलाचार टीकामें देख लेना) उत्पादन दोष जो दान लेनेवाले पात्रके आश्रय हैं सो १६ सोलह प्रकार हैं । १ - धात्रीदोष -- धायें पांच प्रकारकी होती हैं- चालकको स्नान करानेवाली मार्जनधात्री, भूषण पहनानेवाली मंजनधात्री, खिलानेवाली क्रीडाधात्री, दूध पिलानेवाली क्षीरधात्री, सुलानेवाली इनके समान कोई साधु गृहस्थके बालकोंका कार्य करावे व उपदेश देकर प्रसन्न करके भोजन लेवे सो धात्री दोष है । जैसे इस बालकको स्नान कराओ, इस तरह नहलाओगे तो सुखी रहेगा व इसे ऐसे आभूषण पहनाओ, बालकको आप ही खिलाने लगे क्रीड़ा करनेका उपदेश दे, बालकको दूध कैसे मिले उसकी विधि चतावे, स्वयं बालकको सुलाने लगे व सुलानेकी विधि बतावे, ऐसा करनेसे साधु गृहस्थके कार्योंमें फंसके स्वाध्याय, ध्यान, वैराग्य व निस्टहताका नाश करता है ।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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