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________________ तृतीय खण्ड । [ २१ हैं । जब आचार्यको उसके संवन्धमें पूर्ण निश्चय हो जाता है तब 'वे दयावान हो उसको स्वीकार करते हुए यह बचन कहते हैं हे भव्य ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया है । जिस निव्रत लेनेकी आकांक्षासे इन्द्रादि देव अपने मनमें यह भावना करते हैं कि कब यह मेरी देवगति समाप्त हो व कव मैं उत्तम मनुष्य जन्मू और संयमको धारूं, उसी मुनिव्रत धारनेको तुम तय्यार हुए हो । तुमने इस नरजन्मको सफल करनेका विचार . किया है। वास्तव में उच्च तथा निर्विकल्प आत्मध्यानके विना कर्मके पुद्गल 'जिनकी स्थिति कोड़ाकोड़ि सागरके अनुमान होती है' अपनी स्थिति घटाकर आत्मासे दूर नहीं होसते हैं। जिस उच्च धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानसे आत्मा शुद्ध होता है उसके अंतरंगमें लाभ बिना बाहरी मुनि पढके योग्य आचरणरूपी सामग्रीका सम्बन्ध मिलाए नहीं होसक्ता है अतएव तुमने जो परिग्रह त्याग निथ होने का भाव अपने मनमें जागृत किया है, यह भाव अवश्य तुम्हारी मंगलकामनाको पूर्ण करनेवाला है । अब तुम इस शरीर के सर्व कुटुम्बके ममत्त्वको त्यागकर निज आत्माके ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि रूप अमिट कुटुम्बियोंके प्रेमी हुए हो, इससे तुम्हें अवश्य वह मुक्तिकी अखंड लक्ष्मी प्राप्त होगी जो निरंतर सुख व शांति देती हुई आत्माको परम कृतकृत्य तथा परम पावन और परमानंदित रखती है । इस तरह आत्मरसगर्भित उपदेश देकर आचार्य अनुग्रहकर उस शिष्यको स्वीकार करते हैं ॥ ३ ॥ उत्थानिका- आगे गुरु द्वारा स्वीकार किये जानेपर वह..
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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