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________________ २०] श्रीप्रवचनसारटीका । हो आप स्वयं जहाज के समान तरण तारण होकर रागद्वेष मई संसारसमुद्रसे पार होकर परमानन्दमई आत्मखभावकी प्रगटता रूप मोक्ष नगरकी ओर जारहे हो । मेरे मन में इस असार संसारसे इस अशुचि शरीरसे व इन अतृप्तिकारी व पराधीन पंचेंद्रिय के भोगोंसे उदासीनता होरही है । मेरे मनने सम्यग्दर्शनरूपी रसायनका पानकर निज आत्मानुभाव रूपी अमृतका स्वाद पाया है अतः उसके सन्मुख सांसारिक विषय सुख मुझे विषतुल्य भास रहा है। मैं अब आठ कर्मोंके बन्धन से मुक्त होना चाहता हूं जिनके कारण इस प्राणीको पुनः पुनः शरीर धारण कर व पंचेंद्रियोंकी इच्छाके दासत्वमें पडकर अपना समय विषयसुखके पदार्थोंके संग्रह में व्ययकर भी अंत में इच्छाओंको न पूर्ण करके हताश हो पर्याय छोड़ना पडता है । मैं अब उन कर्मशत्रुओं का सर्वथा नाश करना चाहता हूं जिन्होंने मेरे अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यरूपी धनको मुझसे छिपा रक्खा और मुझे हीन, दीन, दुर्बल तथा ज्ञान व सुखका दलिद्री बनाकर चार गतियों में भ्रमण कराकर महान् वचनातीत कप्टोंमें पटका है । हे परम पावन, परम हितकारी वैद्यवर ! संसार रोगको सर्वथा निर्मूल करनेको समर्थ ऐसी परम सामायिकरूपी औषधि और उसके पीने योग्य मुनि दीक्षाका चारित्र मुझे अनुग्रह कर प्रदान कीजिये ।' इस प्रार्थनाको सुनकर प्रवीण आचार्य उस प्रार्थीके मन वचन कायके वर्तनसे ही समझ जाते हैं कि इसमें मुनि पदके साधन करनेकी योग्यता है और यदि कुछ शंका होती है तो प्रश्नोत्तर करके व अन्य गृहस्थोंसे परामर्श करके निर्णय कर लेते
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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