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________________ ३४८ } श्रीप्रवचनसारटोका। अमृतसे परिपूर्ण होकर सर्वथा शुद्ध होता हुआ मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥९॥ इस तरह पांच गाथाओंके द्वारा पंच रत्नमई पांचमा स्थलका व्याख्यान किया गया । इस तरह बत्तीस गाथाओंसे व पांच स्थलसे शुभोपयोग नामका चौथा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ। इस तरह श्री जयसेन आचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीकामें पूर्वोक्त क्रमसे " एवं पणमिय सिद्ध " इत्यादि इकोस गाथाओंसे उत्सर्ग चारित्रका अधिकार कहा, फिर "ण हि गिरदेखो चागो" इत्यादि तीस गाथाओंसे अपवाद चारित्रका अधिकार कहा-पश्चात " एयरंगगढ़ो समणो " इत्यादि चौदह गाथाओंसे श्रामण्य या मोक्षमार्ग नामका अधिकार कहा. फिर इसके पीछे “समणा सुदुयजुत्ता" इत्यादि वत्तीस गाथाओंसे शुभोपयोग नामका अधिकार कहा। इस तरह चार अन्तर अधिकारोंके द्वारा सत्तानवे गाधाओंमें चरणानुयोग चूलिका नाम तीसरा महा अधिकार समाप्त हुआ। प्रश्न-यहां शिप्यने प्रश्न किया कि यद्यपि पूर्वमें बहुतवार आपने परमात्म पदार्थका व्याख्यान किया है तथापि संक्षेपसे फिर भी कहिये ? उत्तर-तव भगवान कहते है जो केवल ज्ञानादि अनन्त गुणोंका आधारभूत है वह आत्मद्रव्य कहा जाता है । उसीको ही परीक्षा नयोंसे और प्रमाणोंसे की जाती है। प्रथम ही शुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा यह आत्मा उपाधि
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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