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________________ [२८७ तृतीय खण्ड। अविदिदपरमत्थेमु य विसयकसायाधिगेमु पुरिसेम । जुहूं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुजेम् ॥ ७८ ।। अविदितपरमार्थेषु च विषयकषायाधिकेषु पुरुषेषु । जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ॥ ७८ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अविदिदपरमत्थेसु ) जो परमार्थ अर्थात् सत्यार्थ पदार्थोंको नहीं जानते व निनको परमात्माके तत्वका श्रद्धान ज्ञान नहीं है (य विषयकसायाधिगेसु ) तथा जिनके भीतर पंचेंद्रियोंके विषयोंकी तथा मान लोभ आदि कषायोंकी बड़ी प्रबलता है ऐसे ( पुरुसेसु) पात्रोंमें ( जुटुं ) की हुई सेवा (कदं) किया हुआ परोपकार (व दत्तं ) या दिया हुआ आहार औषधि आदि दान (कुदेवेसु) नीच देवोंमें (मणुजेसु) और मनुष्योंमें (फलदि ) फलता है। विशेषार्थ-जिन पात्रोंके या साधुओंके सच्चे देव, गुरु, धर्मका ज्ञान श्रद्धान नहीं है व जो विषय कषायोंके आधीन होनेके कारण निर्विकार शुद्धात्माके स्वरूपकी भावनासे रहित हैं उनकी भक्तिके फलसे नीच देव तथा मनुप्य होसक्ता है। भावार्थ-यहांपर भी गाथामें आचार्यने कारणकी विपरीततासे फलकी विपरीतता बताई है । जगतमें ऐसे अनेक साधु हैं जिनको स्याद्वाद नयसे अनेक धर्म स्वरूप आत्मा तथा अनात्माका सच्चा बोध नहीं है तथा न जिनको सचे आत्मीक सुखक पहचान है व जो संसारिक सुखकी वासनाके आधीन होकर लोभ कषायवश या मान कषायवश अपनी प्रसिद्धि पूजा लाभादिकी चाहनाके आधीन होकर बहुत काय लेशादि तप करते हैं ऐसे अपात्रोंकी भी जो
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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