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________________ तृतीय खण्ड। [२८५ कपायकी मंदता होनेसे इन पाप प्रकृतियोंमें भी स्थिति व अनुभाग उतना तीव्र न डालेंगे जितना वे ही प्राणी उस समय डालते जब वे पुजा, पाठ, जप, तप, दानादि न करके चूत रमन, मांस भक्षण, वेश्या सेवन व परस्त्री सेवन व प्राणीघात व असत्त्य भाषण व चोरी करना आदिमें फंसकर डालते तथा कषायोंके मंद झलकावसे अशुभ लेश्याके स्थानमें पीत, पद्म या शुक्ल लेश्याके परिणामोंके कारण वे ही जीव असाता वेदनीयके स्थानमें पुण्यरूप साता वेदनीय वांधते, नीच गोत्रके स्थानमें पुण्यरूप उच्च गोत्र कर्म बांधते, अशुभ नामके स्थानमें शुभ नाम कर्म बांधते तथा अशुभ आयुके स्थानमें शुभ आयु वांध लेते । उन पुण्य कर्मोंके उदयसे वे प्राणी मरकर स्वर्गादिमें जाकर देव पद पाते व मनुष्य जन्ममें जाकर राना महाराजा, धनवान, रूपवान, वलवान व प्रभावशाली व्यक्ति होते, तथापि उन पदोंको नहीं पाते जिन पदोंको यथार्थ धर्मानुरागी अपने यथार्थ धर्मानुरागसे पुण्यकर्म वांध प्राप्त करता। अल्पज्ञानी प्रणीत तत्वोंता मननकर्ता अत्यंत मंदकपायी साधु भी स्वर्गों तक जा सक्ता है। इससे आगे नहीं। वास्तवमें यहांपर आचार्यने कोई भी पक्षपात नहीं किया है जमे भाव जिसके हैं उसको वैसे फलकी प्राप्ति बताई है। जो जैन धर्मके तत्वोंके श्रद्धानी नहीं हैं और परोपकार करते, दान करते व कठिन २ तपस्या करते तो उनका यह मंद कपायरूप कार्य निरचैक नहीं होसक्ताः वे अवश्य कुछ पुण्यकर्म बांधते हैं जिसका फल सांसारिक विभूतिका लाभ है; परन्तु संसारके बंधनोंसे उनकी कभी मुक्ति नहीं होसक्ती है । ऐसा तात्पर्य है।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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