SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ___ तृतीय खण्ड। [२७६ यदि दातार स्वयं सम्यक्तरहित हो, परन्तु व्यवहारमें श्रद्धावान • हो तो वह उत्तम सुपात्र दानसे उत्तम भोगभूमि, मध्यम सुपात्र दानसे मध्यम भोगभूमि तथा जघन्य सुपात्रदानसे जघन्य भोगभूमिमें जाने योग्य पुण्य बांध लेता है, यह सामान्य कथन है। और यदि ऐसा दातार कुपात्रोंको दान करे तो कुभोगभूमिमें जानेलायक पुण्य बांध लेता है । परिणामोंकी विचित्रतासे ही फलमें विचित्रता होती है । यहां अभिप्राय यह है कि मुनि हो वा गृहस्थ हो उस हरएकको यह योग्य है कि वह शुद्धोपयोगकी भावना सहित व शुद्धोपयोगकी रुचि सहित उदासीनभावसे मात्र शुद्धोपयोग धर्मके प्रेमसे ही पात्रोंकी सेवा करे--कुछ अपनी बडाई पूजा लामादिकी वांछा नहीं करै, तब इससे यथायोग्य ऐसा पुण्यबंध होगा जो मोक्षमार्गमें बाधक न होगा। पात्र तीन प्रकार हैं, ऐसा पुरु०में अमृतचंद्रजी कहते हैंपात्र विभेदयुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् । अविरतसम्यग्दृष्टिविरताविरतश्च सकलविरतश्च ॥१७॥ भावार्थ-मोक्षमार्गके गुणोंकी जिनमें प्रगटता है ऐसे पात्र - तीन प्रकार हैं जघन्य व्रत रहित सम्यग्दृष्टी, मध्यम देशव्रती, उत्तम सर्व व्रती। दानके फलमें श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरंड श्रा०में कहते हैंक्षितिगतमिव वटवीज पात्रगतं दानमल्पमपि काले । फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ॥ ११६ ॥ भावार्थ-जैसे वर्गतका बीज पृथ्वीमें प्राप्त होनेपर खूब छायादार फलना है, वैसे समयके ऊपर थोड़ा भी दान पात्रको दिया हुआ संसारी प्राणियोंको बहुत मनोज्ञ फलको देता है।. .
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy