SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८] श्रोप्रवचनसारटोका । जातिका गेहूं फलता है । इस ही तरह पात्रके भेदसे शुभोपयोग करनेवालेका रागभाव भी अनेक भेदरूप होजाता है जिससे अनेक प्रकारका पुण्यवंध होता है तब उस पुण्यके उदयमें फल भी भिन्न २ प्रकारका होता है। जैन शास्त्रोंमें दान योग्य पात्र दो प्रकारके बताए हैं एक सुपात्र और दूसरा कुपात्र | जिनके सम्यग्दर्शन होता है वे सुपात्र हैं। जिनके निश्चय सम्यक्त नहीं है, किन्तु व्यवहार सम्यक्त है तथा यथायोग्य शास्त्रोक्त आचरण है वे कुपात्र हैं। सुपात्रोंके तीन भेद हैं उत्तम, मध्यम, जघन्य । उत्तम पात्र निग्रंथ साधु हैं, नध्यम व्रती श्रावक हैं, जघन्य व्रत रहित सम्यग्दृष्टी हैं। ये ही तीनों यदि निश्चय सम्यक्त शून्य हों तो कुपात्र कहलाते हैं । दातार भी दो प्रकारके होते हैं एक सम्यग्दृष्टी दूसरे मिथ्यादृष्टी। मिनको निश्चय सम्यक्त प्राप्त है ऐसे दातार यदि उत्तम, मध्यम या जघन्यू सुपात्रको दान देते हैं व मनमें धर्मानुराग करते हैं तो परंपराय मोक्षमें बाधक न हो ऐसे अतिशयकारी पुण्यकर्मको बांध लेते हैं। वे ही सम्यक्ती दातार यदि इन तीन प्रकार कुपात्रोंको दान करते हैं तो बाहरी निमित्तके बदलनेसे उनके भावोंमें भी वैसी धर्मानुरागता नहीं होती है, इससे सुपात्र दानकी अपेक्षा कम पुण्यकर्म बांधते हैं । यद्यपि सुपात्र कुपात्रके बाहरी आचरणमें कोई अंतर नहीं है तथापि जिनके भीतर आत्मानंदकी ज्योति जल रही है ऐसे सुपात्रोंके निमित्तसे उनके कायमें वैसा ही दिखाव होता है जिसका दर्शन दातारके भावोंमें विशेषता करदेता है, वह विशेषता आत्मज्ञान. रहित कुपात्रों के शरीरके दर्शनसे नहीं होती है।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy