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________________ तृतीय खण्ड । [ २६१ णामों में अशुभोपयोगको न लाकर शुभोपयोगी मुनि परम उपकारी होते हैं, वे श्रावक श्राविकाओं को भी धर्ममार्गपर आरूढ़ होने के लिये उपदेश देते रहते हैं व उनको उनके कर्तव्य सुझाते रहते हैं । कहीं किसी राजाको अन्यायी जानकर उसको उदासीन भावसे धर्म व न्यायके अनुसार चलनेका उपदेश करते हैं । निरारम्भ रीति से अपने आत्मीक शुद्ध चारित्रकी तथा व्यवहार चारित्रकी रक्षा करते हुए साधुगण परोपकार में प्रवर्तते हैं । यही शुभोपयोगी साधुओंके लिये परोपकारका नियम है। पं० आशाधर अनगार ध० में कहते हैं चित्तमन्वेति वाग् येषां वाचमन्वेति च क्रिया । स्वपरानुग्रहपराः सन्तस्ते विरलाः कलौ ॥ २० ॥ भावार्थ- ऐसे स्वपर उपकारी साधु इस पंचम कालमें बहुत कम हैं जो मन, वचन, कायको सरल रखते हुए वर्तते हैं । साधु महाराज जिस ज्ञान दानको करते हैं उसकी महिमा इस तरह वहीं कही है दत्ताच्छ किलैति भिक्षुरभयाश तद्भवाद् भेषजादारोगान्तर संभवादनतश्चोत्कर्षतस्तद्दिनम् ॥ ज्ञानात्वाशुभवन्मुदो भवमुदां तृप्तोऽमृते मोदते । तदातृ ' स्तिरयन ग्रहानिव रविर्भातीतरान् ज्ञानदः ॥५३॥ भावार्थ-यदि अभयदान दिया जावे तो संयमी इसी जन्म पर्यंत सुखको पासक्ता है । यदि औषधि दान दिया जाय तो जब तक दूसरा रोग न हो तबतक निरोगी रह सक्ता है । यदि भोजन दान किया जावे तो अधिकसे अधिक उस दिन तक तृप्त रह सक्ता है, परन्तु जो ज्ञान दान किया जावे तो उस शीघ्र आनंददायक
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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