SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६०] श्रीप्रवचनसारटीका । उपकार नहीं कर सक्ते। यदि कोई साधु रोगी है तो उसको उपदेश रूपी औषधि देकर, उसका शरीर मर्दन कर, उसके उठने बैठनेमें सहायता देकर, इत्यादि उपकार कर सक्ते हैं, उसको औषधि व भोजन बनाकर व लाकर नहीं देसक्के हैं। जिस आरम्भके वे त्यागी हैं अपने लिये भी नहीं करते वह दूसरोंके लिये कैसे करेंगे ? साधुओंका मुख्य उपकार साधुओं प्रति ज्ञानदान है । मिष्ट जिन बचनामृतसे बड़ी बड़ी बाधाएं दूर होनाती हैं। केवली महाराजकी सेवा यही जो उनसे स्वयं उपदेश ग्रहणकर अपने ज्ञानकी वृद्धि करना । जब कोई साधु समाधिमरण करनेमें उपयुक्त हों, उस समय उनके भावोंकी समाधानीके लिये ऐसा उपदेश देना जिससे उनको कोई मोह न उत्पन्न होवे और वे आत्मसमाधिमें दृढ़ रहें। संघकी वैयावृत्यमें यह भी ध्यान रखना होता है कि संघका विहार किस क्षेत्रमें होनेसे संयममें कोई बाधा नहीं आएगी, इसको विचारकर उसी प्रमाण संघको चलाना। यदि कहीं जैन मुनिसंघकी निन्दा होती हो तो उस समय अवसर पाकर उनके गुणोंको इस तरह युक्तिपूर्वक वर्णन करना जिससे निन्दकोंके भाव बदल जावे सो सब मुनिसंघकी सेवा है । कभी कहीं विशेष अवसर पडनेपर मुनि संघकी रक्षार्थ अपने मुनिपदमें न करने योग्य कार्य करके भी संवके प्रेमवश संघकी रक्षा साधु जन करते हैं। जैसे श्री विष्णुकुमार मुनिने श्री अकंपनाचार्य आदि ७०० मुनि संवकी रक्षा स्वयं ब्राह्मणरूप धारण कर अपनी विक्रिया ऋद्धिके वलसे की थी; परन्तु ऐसी . दशामें वे फिर गुरुके पास जाकर प्रायश्चित्त लेते हैं-परोपकारके . लिये अपनी हानि करके फिर अपनी हानिको नर लेते हैं । परि-.
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy