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________________ २५६] श्रोप्रवचनसारटोका । औषधि, अभय तथा विद्यादान देनेका, साधुओंकी सेवाका, श्रावकके व्रतोंको पालनेका, शास्त्र खाध्याय करनेका, वारह प्रकार तपके अभ्यास करनेका, धर्म प्रभावनाका आदि गृहस्थोंके पालने योग्य धर्माचरणका उपदेश देवे और उन्हें यह भी समझावे कि क्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्रको अपनी २ पदवीके योग्य नीति व सत्यके माथ आजिविका करके संतोप सहित धर्माचरण करते हुए मनुप्य जन्नको बिताना चाहिये । गृहनें भी जलमें कमलके समान निवास करना चाहिये इत्यादि उपाप्तका ध्ययन नामके सातवें अंगके अनुसार उपासकोंके संस्कार आदिका विधान उपदेश इत्यादि व्यवहार परोपकारके कार्योंमें साधुके शुभोपयोग रहता है । यदि धर्नानुरागसे शुग कार्य न करके किली प्रसिद्धि, पूजा, लाभादिके वश किये जावें तौ इहा काोंमें आतध्यान होजाता है, परन्तु जैनके भावलिंगी साधु अपवाद मार्गमें रहने हुए परम उदासीनभाव व निष्टहतासे धर्मोपदेश, वेयावृत्य आदि व्यहार शुभ आचरण पालते हैं। भारत यह रहती है कि वहन गोत्र शुद्धोपसेगमें पहुंच जावें। वास्तव, साबुगण एक दूपरेकी सनाधानीमें प्रवर्तते हुए एक दूतरेके धर्मकी रक्षा करते हैं । यादृत्य करना उनका मुख्य काव्य है। श्री शिवकोटि आचार्य ने भगवतीआराधनाने साधुको वैयावृत्यके इसने गुण वश किये हैं.~ गुण परिणामो ससा, पल्स भरि पतलंसो य । संधाणे तव पूमा अकुच्छिती समाधी च ॥ १४ ॥ थापा संचरसाखिलया व तणं च अपिक्षिनिकाय । वेजावच्चस्त गुणा या भावणा राजपुण्गाणि । १५ ।।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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