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________________ तृतीय खण्ड । भावार्थ - इस गाथा में साधुओंके सरागचारित्र व शुभोपयोगवर्तने कुछ दृष्टांत और दिये हैं। जैसे साधुओं का यह कर्तव्य है कि जब वे ध्यानस्थ न हों तव अवसर पाकर जगतके जीवोंको सम्यग्दर्शनका मार्ग बतायें कि ऐ संसारी जीवों पचीस दोष रहित निर्मल सम्यर्शनका पालन करो. सुदेव, सुगुरु व सुशास्त्रकी श्रद्धा रक्खो, जीवादि सात तत्वोंके स्वरूप में विश्वास रक्खो, आत्मा व परको अच्छी तरह जानकर दोनोंके भिन्न २ स्वरूपमें भूल मत करो इस तरह सम्यग्दर्शनकी दृढ़ताका व मिथ्यातियों को सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उपदेश देवें, तथा गुणस्थान, मार्गणा, कर्म बंध, कर्मोदय, ries आदिका व्याख्यान करें तथा अध्यात्मिक कथनसे स्वपरको सुखशांतिके समुद्र मग्न करें। जो कोई स्त्री या पुरुष संसार शरीर भोगोंसे वैराग्यवंत हो आत्मकल्याणके लिये साधुपद स्वीकार करने की इच्छा प्रगट करें उनकी परीक्षा करके उन्हें अपना शिप्य करें, साधुपद से भूपित करें | फिर अपने शिष्योंकी उसी तरह रक्षा करे जिस तरह पिता अपने पुत्रों की रदा करता है । उनको शास्त्रका रहस्य बतायें शक्तिके अनुसार उनको तप करनेका आदर्श करे, उनकी श्रम व रुग्न अवस्थामें उनके शरीरकी सेवा करे, जहां सुगमतासे भिक्षाका लाभ होसके से देश में शिष्योंको लेकर विहार करे, यदि उनमें कोई दोष देखें उनको समझाकर, ताड़ना देकर उनको दोष रहित करें । तथा श्रावक श्राविकाओंको वे साधुगण जिनेन्द्रकी पूजा करनेका पूजामें तन, मन, धन लगानेका, मंदिरजीकी आवश्यक्ता या मंदिरजीके निर्माणका, मंदिरजीके जीर्णोद्धारका पत्रोंको भक्तिपूर्वक और दुःखित भुक्षितको दयापूर्वक आहार, [२५५
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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