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________________ २३४] श्रीप्रयचनसारटोका। नतासे कहा है, क्योंकि यही साक्षात् कर्मबंधका नाशक व मोक्षावस्थाका प्रकाशक है । जहांपर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनका अलग २ विचार है वहां व्यवहारनयका आलम्बन है। जहां एक ज्ञायक आत्माका ही विचार है वहां निश्चयका आलम्बन है, परन्तु जहां विकल्प रहित होजाता है अर्थात् विचारोंको पलटना बन्द होजाता है वहां निर्विकल्प समाधि लगती है जिसको स्वानुभव कहते हैं। इस दशामें ध्याताके उपयोगमें विचारकी तरंगें नहीं हैं। तब ही वह निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्यक्चारित्रमें एकतासे ठहरा हुआ अद्वैतरूप होजाता है, इसीको शुद्धोपयोग कहते हैं-यही साक्षात् मोक्ष मार्ग है, यही परम साम्यभाव है, यही पूर्ण मुनिपना है, यही साधक अवस्था है, इसीको ध्यानकी अग्नि कहते हैं, यही कर्म बंधनोंको जलाती है, यही आनन्दामृतका स्वाद प्रदान करती है। ऐसे श्रमणपढ़की व्याख्या करते हुए ऐसा कहा जाता है कि इस समय यह साधु निश्चयसे मोक्षमागी है अर्थान् शुद्धोपयोगमें लीन है । निश्चयनयका विकल्प एकरूप अभेदका विचार व कथन है । व्यवहारनयका विकल्प अनेक रूप भेदका विचार व कथन है ! सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्षमार्ग है यह व्यवहारका बचन है। प्रमाण ज्ञान दोनों अपेक्षासे एक साथ निश्चय व्यवहारको जानता है, क्योंकि प्रमाण सर्वग्राही है नय एकदेशग्राही है । ध्याता या साधकके अंतरंगमें स्वात्मानुभूतिके समय प्रमाण व नय आदिके विकल्प नहीं हैं वहां तो स्वरूप मग्नता है तथा परमसाम्यता है, रागद्वेषका कहीं पता भी नहीं चलता है। वास्तवमें यही मुंनिपना है। आत्माका स्वभावरूप रहना
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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