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________________ तृतीय खण्ड। [२३३ विशेषार्थ-जो भाव कर्म रागादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, नोकर्म शरीरादि इनसे भिन्न है तथा अपने सिवाय शेष जीव तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन सब द्रव्योंसे भी भिन्न है, और जो स्वभाव हीसे शुद्ध नित्य, आनंदमई एक स्वभाव रूप है । " वही मेरा आत्मद्रव्य है, वही मुझे ग्रहण करना चाहिये" ऐसी रुचि होना यो सम्यग्दर्शन है, उसी निज स्वरूपकी यथार्थ पहचान होना सो मम्यग्ज्ञान है तथा उमी ही आत्मस्वरूपमें निश्चलतासे अनुभव प्राप्त करना मो सम्यकचारित्र है। जैसे शरबत अनेक पदार्थोसे बना है इसलिये अनेक रूप है परंतु अभेद करके एक शर्वत है। ऐसे ही विकल्पसहित अवस्थामें व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान' व सम्यकचारित्र ये तीन हैं, परन्तु विकल्परहित समाधिके कालमें निश्चयनयसे इनको एकाय कहते हैं । यह जो स्वरूपमें एकाग्रता है ‘या तन्मयता है इसीको दूसरे नामसे परमसाम्य कहते हैं। इसी परम साम्यका अन्य पर्याय नाम शुद्धोपयोग लक्षण श्रमणपना है या दूसरा नाम मोक्षमार्ग है ऐसा जानना चाहिये । इसी मोक्षमार्गका जब भेदरूप पर्यायकी प्रधानतासे अर्थात् व्यबहारनवसे निर्णय करते हैं तब यह कहते हैं कि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग है । जब अभेढ़पनेसे द्रव्यकी मुख्यतासे या निश्चयनयसे निर्णय करते हैं तब कहते हैं कि एकाग्रता मोक्षमार्ग है । सर्व ही पदार्थ इस जगतमें भेद और अभेद स्वरूप हैं। इसी तरह मोक्षमार्ग भी निश्चय व्यवहार रूपसे दो प्रकार है । इन दोनोंका एकमात्र निर्णय प्रमाण ज्ञानसे होता है, यह भाव है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने फिर भी भावलिंगको प्रधा
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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